प्रारब्ध प्रहार- रूपा रानी

मेघ घुमड़-घुमड़ मन में बार–बार
झड़ी लगा बरसे जल-धार
कैसे सहूँ काली घटा का भार
प्रवाहित कर दूँ अश्रु हार
ये कैसा प्रारब्ध प्रहार?

शाख–पत्ते विदीर्ण विटप से
जैसे अपूर्ण स्वप्न नयन से
दगता हृदय दुःख की ज्वाला से
बृहत विश्व में सूना मम संसार
ये कैसा प्रारब्ध प्रहार?

प्रत्येक प्रयास मेरे रहे विफल
नियति मेरी देती मुझे ही छल
दीखता कहीं न कोई हल
यह चोट पाने हम न थे तैयार
ये कैसा प्रारब्ध प्रहार?

प्रारब्ध प्रहार! प्रारब्ध प्रहार!
मैं न मानू इसके आगे हार
हर पीढ़ा का आलिंगन कर,
पहना दूँ अपने कर से हार
इसके समक्ष करने लगी
मेरी आत्मा चीत्कार
परन्तु हे नियति लेखा सहते,
होने लगा तुझसे प्यार
प्रारब्ध प्रहार!
हाँ,अब करे प्रारब्ध स्वीकार
ये कैसा प्रारब्ध प्रहार?

-एच के रूपा रानी
बेंगलुरु-560095