फागुनी रंग में रंगे,
देखो सूखे हुए पलाश
टेसु और गुलाल से दहके
धरती और आकाश
अबकी बरस जो खेलूँ होली,
ओ हमजोली रं ढहग देना,
पेशानी से पैरों तक अपने
रंग में ओ रंगरेज
भीग जाए चुनर धानी,
गीला तन-मन महके आंगन,
रंग तुम्हारे–रंग जाती हूं
प्रीत की बांसुरी बन जाती हूँ
भांग के रंग पर चढ़ के शब्द
तुम्हारे,गलियों में शोर मचाते हैं
कभी गुदगुदाते,कभी सताते,
कभी मुखड़ा चूम चूम जाते हैं
शाम से धमा चौकड़ी खेल रात में
देहरी पर मुँह ढ़क कर सो जाते हैं
सूख गए थे पतझड़ में जो सपने
फगुआ में इन्द्रधनुषी हो जाते हैं
मेरे माखन से तन पर अपने
अधरों से रच दो नयी कविता
नेहरंग में सब फाग रंग घुल जाएं
इस फाग में फुहार बन बरस जाएं
अपने प्यार से ऐसा करो श्रृंगार
तेरे सम्मोहन से निकल ना पाऊं
मुझ पर जरा ऐसा करो उपकार
ओ सांवरे,ऐसी बंशी की धुन सुना जरा
होली का रंग बिखरा जाए चहुँ ओर हरा
जिस स्पर्श की तपिश पर सुध-बुध,
मैं बिसराऊँ, तुझमें समाती जाऊं
काया मोह-माया सब तज के
आत्मा से परमात्मा में विलीन हो जाऊं
अमीता सिंह
रीवा, मध्य प्रदेश