सब के अपने: अंतिम

यूं ही नहीं अपने बदनाम है, अपनों से
कोई भूला बिसरा सा अपना मिलता है
वो भी सपनों में
इन अपनों की कहानी,
अपनों की ज़ुबानी कुछ यूं बयां है

अँधेरे में परछाई जैसा इनका पन्हा है
हमारे दुःख के मंजर में खुशी का इन का लम्हा है,
यूं तो हम भी अपनों के झूठे से गीत गाते हैं
और दूसरों के सामने उन से झूठे से मीत भी मानते हैं

इस झूठी मीत में प्रेम एक दफा होता है
ये भी अपनों की ही हरकत है वरना, यूं थोड़े
कोई अपना, अपनों से खफा होता है

कुछ हरकते तो हम भी करते हैं
बस थोडा नजरिया अलग होता है
इस नजरिये का ही जिक्र है वरना
हर अंधेरा देखने वाला अँधा थोड़ी न होता है

हर शीशे पर दिखने वाला दाग, शीशे का नहीं होता
थोडा बच के रहा करो इन अपनों से,
क्योंकि बिगड़ने का कारण हर बार वो अपना नहीं होता

अंतिम
जींद, पीजीजीसीजी,
सेक्टर- 42