सपनों की आत्माएं: रूचि शाही

एक कब्रिस्तान है
जहाँ दुनिया की सारी औरतें जाती है
अपने सपनों को मारने के बाद
दफ़न करने के लिए

कल मैं भी गयी थी
उसी कब्रिस्तान में
कुछ दम घुटते सपनों को लेकर
जाने कितने सालों से
अधमरे से थे ये सपने

कुछ उम्मीदें जो सिसक रहीं थी
बस मरती नहीं थी
कुछ आशाएं जो निराश्रय हो चुकी थी
कुछ अभिलाषाएँ जो दुर्बल होकर
चलने फिरने में असमर्थ हो गईं थी

सोचा सबका गला घोंट कर
तिलांजलि दे आऊं
और मुक्त कर दूं खुद को
रोज़-रोज़ की घुटन से

पर कुछ सपनों की आत्माएं
हँसने लगी मुझे देख कर
देखो एक और मजबूर औरत
आ गयी पुरुष के प्रेम को
बस जीवित रखने के लिए
अपनी इच्छाओं को दफ़न करने
इस कब्रिस्तान में

रूची शाही
बिहार