अनामिका सिंह
मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश
सृष्टि के दो नियामक थे
बात औरत और मर्द की होने लगी
एक की श्रेष्ठता दूसरे पर लांछन बनी
ये उत्प्रेरकों का अभिमान था
सामान्यीकरण को दरकिनार करता हुआ
एक निहंता कांटा
चुभ रहा था पांव के तलवे में
मैं पांव के तलवों को सहलाती
और अतिरेक की वृत्ति में उलझ जाती
तुम तर्जनी की नोंक पर घुमाते
और कहते
आधिपत्य में मैं ही अधिपति हूँ
मैं मन में बुदबुदाती
सरस्वती लक्ष्मी काली
ये नियामकों का खेल कब से चल रहा है