साठ पार की उस औरत ने
एकाकीपन में जब खुद को
गहराइयों से टटोला तो
समझ आया कि
पूरी उम्र गुज़ार दी उसने
यह अभिव्यक्त करने में कि
वो क्या चाहती है
स्त्रियोचित गुण निभाती रही
हमेशा दूसरों को खुश करने का प्रयास करती रही
निभाना चाहती थी
स्वयं के साथ भी एक रिश्ता
किन्तु ज़िम्मेदारियों के तले
सिर्फ नाम के रिश्तों को ही
निभाती रही
कुछ करने की चाह की अभिव्यक्ति का
उसे एक मौका तक मिला
अगर कभी कहती भी
यह कहकर टाल दिया जाता कि
आखिर सब कुछ तो है तुम्हारे पास
जरूरत ही क्या है तुम्हें कुछ करने की
वो किसे कहती कि
दूसरों के लिए नहीं
अपने लिए कुछ करना चाहती है
मगर कटु सत्य है कि
उम्र गुजर जाती है लेकिन
स्त्रियां नहीं छोड़ती अपना
स्त्रियोचित गुण
काश एक बार कह पाती कि
मैं बांधना चाहती हूं
अपने पैरों में घुंघरू
मैं केनवास पर उखेरना
चाहती हूं इन्द्रधनुष के रंग
मैं उड़ाना चाहती हूं
दूर आसमां में हवाई जहाज
मैं पकड़ना चाहती हूं
अपने हाथों में कलम
तो आज स्वयं को एकाकीपन में
टटोलना ना पड़ता
जया वैष्णव
जोधपुर राजस्थान