सुनो, मैं चुप हूँ
जोखिम भरे पल को समेट कर
एकांत की ओट पर बैठकर
मौन की भाषा गढ़ रही हूँ
चीख के तनाव से निकलकर
चुप्पी को शब्द देकर
रात की काली छाया को
नया स्वरूप दे रही हूँ
फुरसत के सिराहने
अपनी नींद को टालकर
समस्त सपनों को स्थगित कर
उम्र की चाल नाप रही हूँ
घड़ी-घड़ी झाँक रही
समझौतों की खिड़कियों से
दोष का किस्सा किसे सुनाऊँ
बस खून के ताप को ठंडा होते देख रही हूँ
अलगाव की चादर पर
तहज़ीब के कसीदे बुन रही मैं
अपनी जमानती इच्छाओं को
पतझड़ की अहमियत बता रही हूँ
समझ सका ना कोई
उन बादलों की तड़प को
थम गया जहाँ के तहां कारवां
सहमें हुए कदमों की थाप सुन रही हूँ
तारीखों के सफ़र में
इन्तजार की लम्बी राहों पर
इतराते हुए कल के लिए
पंक्तिबद्ध कविता रच रही हूँ
प्रार्थना राय