नंदिता तनुजा
अस्तित्व की बात करूं
तो तुम बस सुनो इतना
रुतबा जीता है मुझमें… और
ज़मीर भी ज़िंदा है उतना
किसी के एहसास को मारती नहीं
मेरी रुह की खाक़ में भी
वफ़ा मिलेगी इतनी
बिखेर दो ज़र्रा-ज़र्रा फ़िज़ा में भी
तो भी रवां-रवां महकेगा उतना
वक़्त की बात करती नहीं
कुछ भी कह दे कोई
सुन के भी ग़र मैं खामोश इधर
वक़्त के साथ तो तुम्हें भी देखना
अपने हौसलों के निखार में
सादगी को यहाँ संभाल के
खुद के उसूलों से चाह इतना
हालात बद से बद्तर हो मेरे
किसी भी हाल में गिरूं नहीं इतना
रब से राब्ता जोड़ती है सांसें
ज़िंदगी को सांसों से मोहब्बत जितनी
मुझे कोई समझे यहाँ आसान नहीं
खुद गिरेबां में तुम झांको आसान नहीं
मेरे हौसले बहुत बुलंद है आसमाँ है जितना
टूटेगा कभी दिल तो नसीबा होगा अपना
कि बेशक नंदिता नहीं है नज़र में तेरे
फिर भी मेरे हौसलों से तुझे ख़ौफ होगा इतना