शराबी- जॉनी अहमद

जब पहला घूँट शराब का साथियों संग गटका
जब पहली बार घर लौटने का रास्ता मैं भटका

नशे का पहला बादल जब मेरे सर पे मंडराया
और कड़वे से उस पानी ने जब मुझको बहकाया

मैं अपना हाल समझ सकूँ उस हाल में नहीं था
लड़खड़ाती हुई ज़ुबाँ थी और होश कहीं पे था

कुछ रोज़ गुज़रे तो अब जाम एक आम सी बात थी
सूखे सूखे दिन थे मेरे और झूमती-भीगती सी रात थी

बदन अब मेरा नशे का किरायेदार हो चूका था
मैंने यार बनाएँ मैख़ाने में, बस घर के रिश्ते खो चूका था

कुछ और वक़्त गुज़रा तो ज़िस्म ढीला सा लटकने लगा
मैं भी ज़िद्दी था बड़ा, अब और ज़्यादा गटकने लगा

जिगर सड़ गया मेरा, साँसे उखड़ने लगी
मुझे फिर भी था पीना, तलब अब भी थी जगी जगी

बदन ठंडा सा पड़ने लगा, नज़र ओझल सी होने लगी
मेरे माँ-बाप, मेरे बच्चे, मेरी बीवी भी रोने लगी

मेरी नसों में अब खूँन की रवानी रुक सी गई
जीभ सूखी मेरी, पलकें भारी सी हो गई

ताबीजों में अब उतनी ताकत कहाँ बची थी
मेरी साँसों की जायदाद लम्हों में बची थी

मेरे अपनों को मेरा बचना, अब नामुमकिन सा लगा
मेरी आखिरी ख़्वाहिश पूछना ही, सबको सही सा लगा

मुझे पूछा की दिल की आखिरी हसरत तो बता दो
मैं मर गया कहते हुए, दो घूँट तो पिला दो,
दो घूँट तो पिला दो

-जॉनी अहमद ‘क़ैस’