Sunday, November 3, 2024
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जिंदगी के गीत गाती है सुप्रसन्ना झा की कविताएं: डॉ शेफालिका वर्मा

कविता संग्रह- अवनि से अंबर तक
कवयित्री- सुप्रसन्ना झा
समीक्षक- डॉ शेफालिका वर्मा

साहित्य समाज का दर्पण है और अब साहित्य संस्कार का दर्पण हो गया है। समाज रहा कहाँ? जहाँ एकात्मकता होती थी, एक दूसरे के साथ मिलकर दुःख-सुख बाँटते थे वह होता था समाज मगर अब? अब सभी सिर्फ अपने लिए है। समाज टूट रहा है, परिवार बिखर रहा, पर औरत का दर्द, मन की व्यथा मन में ही रह गयी है, यूँ लगता है जैसे समाज की सारी बुराइयों की जड़ वह खुद ही हो, यह आत्मग्लानि का भाव एक और तो उसमें वेदना के बीज बो रहा तो दूसरी ओर अपने अस्तित्व का भी बोध करा रहा, हम भी कुछ हैं, यह ध्यान रहे।

सुप्रसन्ना जी का पद्य संकलन ‘अवनि से अंबर तक’ जीवन की मेघमालाओं के मध्य मन के इन्द्रधनुषी रंगों में आलोकित हो रहा है। किन्तु, कभी कभी जब स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हो उसे भला बुरा कहने लगती है, तो स्थिति विकट हो जाती है।

इस तरह की कितनी भावनाएं वेदनायें लेकर सुप्रसन्ना जी की कविताएं जिंदगी के गीत गाती है, कभी हँसती-मुस्कुराती, कभी वेदना में डूब जाती है। इनकी कविताओं में बसन्त है, तो पतझड़ भी, कभी कभी तो दोनों साथ चलते हैं-

उन्होंने ज़िन्दगी में बहुत कुछ पाया
कभी प्यार तो कभी तकरार
कभी ख़ुशी कभी उदासी

जैसा कि इनकी कविताओं से प्रतीत होता है। वैसे भी नारियों के लिए लिखा ही गया है-

‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आँखों में पानी’

वास्तव में, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। नारी का जीवन दबे ढंके आज भी प्रतिशत में इसी स्थिति में ज्यादा है। एक ओर तो नारियां आकाश की ऊंचाइयों को छू रही है, दूसरी ओर उसकी आँखों में आँसू लबालब है, आंचल का दूध मातृत्व लिये आज भी है। आज भी नारी प्रताड़ित हो रही है, कारण दहेज़ हो वा कि अहंकार हो पुरुषत्व का-
हां वो माँ थी
उसे पाषाण बनना था
कमजोर इन्सानों की तरह उसे रोना नहीं था

नारी की सहनशीलता की चरम सीमा है इन पंक्तियों में। वास्तव में नारियाँ धरती होती है , कितने भी पैरों से रौंदते चलो , फिर भी फल फूल ही उगाती है , हरियाली ही लोगों के जीवन में भरती है–
‘विश्वास के रंग का स्थायित्व सतत रहता है-

वह मौसम के रंग की तरह कभी नहीं बदलता
जो बदलते रंगों के बीच कभी नहीं ठहरता
हाँ विश्वास का रंग

कवयित्री की पीड़ा भरी ये पंक्तियाँ जैसे हृदय को चीर जाती है-

‘सच कहूं
स्त्री होना सहज न था
आदिकाल से ही गलत न होने पर भी
अहिल्या का पत्थर बन जाना
वृन्दा का तुलसी बन
सीता का कलंकित जीवन बिताना
ना ना स्त्री होना सहज ना था’

एक अव्यक्त मूर्च्छना में भर जाती तन मन को, स्त्री की व्यथा विगलित इन पंक्तियों को पढ़ कर-

‘क्या मृत्यु तुम प्रत्यक्ष खड़ी थी, पाषाण सी मैं निहारूं’

दर्द का समन्दर, स्त्री का जीवन, एक सशक्त तरुवर से लता की तरह लिपटी रहती है स्त्री, किन्तु, जब सहारा देने वाला तरुवर ही अचानक गिर जाये, छिन्न भिन्न लता धरती पर बिखरी पड़ी रहती है, किन्तु, यशोधरा के शब्दों में-

‘अब कठोर हो वज्रादपि-कुसुमादपि हे सुकुमारी
आर्य पुत्र दे चुके परीक्षा अब है तेरी बारी’

और कवयित्री सुप्रसन्ना लेखनी हाथ में ले मातृत्व की गरिमा को अजर अमर कर जाती है। वैसे भी स्त्री लेखन में स्त्रियों को ज़िन्दगी में बहुत सारी चुनौतियाँ का सामना करना पड़ता है। सिर्फ उसे मन की अपनी एक दुनिया मिलती है जहां अपने मन के अनुसार सपनों के घरौंदें बनाती है, उसी में उछलती-कूदती रहती है। एक अंतर्द्वंद्व निरन्तर उसके हृदय में चलता रहता है। अपनी अस्मिता की तलाश में बेचैन रहती है और यही बेचैनी कविता का सृजन कर जाती है। जिस तरह से माँ प्रसव-वेदना से छटपटाती रहती है, बच्चे के जन्म के बाद चैन की सांस लेती है ठीक वही प्रसव-वेदना की स्थिति कविता के जन्म से पहले कवियों की होती है और अपने मानस-शिशु के जन्म के उपरांत निष्कृति की सांस लेता है। तभी तो कोरोना को भी कवयित्री ने नहीं छोड़ा-

‘कोरोना है डरावना, पल पल मौत की खबर
मुझसे अब अराधना’

शब्द ब्रह्म है- अतः कवयित्री ने बोलने लिखने में शब्दों के प्रयोग का भी अति रमणीय वर्णन किया है। कुल मिला कर जीवन के साथ मन की तरंगें हर रूपमे अवनि से अंबर तक विशद विरल भावनाओं से सजा रही है।

आज किसी भी भाषा में महिला लेखन की बाढ़ सी आ गयी है ऐसा भान होता है जैसे गार्गी, मैत्रेयी, भारती आदि का युग फिर से आ रहा हो। पर किसी भी साहित्य के इतिहास में महिला साहित्यकारों को शायद ही यथोचित स्थान मिला हो, खास कर आधुनिक काल के इतिहास में, लेकिन यह तय है कि सबों की पहचान वक्त कराता है।

वर्जीनिया वुल्फ ने बहुत ही अच्छी बात कही है- ‘If you do not tell the truth about yourself ,cannot tell it about other people’ वास्तव में लेखन भी सच्चाई चाहती है। कृतित्व और व्यक्तित्व की एकरूपता ही किसी भी हृदय को स्पर्श कर पाने की क्षमता रखती है। आशा ही नहीं वरण पूर्ण विश्वास है कि सुप्रसन्ना जी की इस कृति का स्वागत सुधि पाठकों के साथ प्रज्ञावान आलोचक भी चमत्कृत होंगे।

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