चित्रा पंवार
कभी तो मिलने आओ
मुद्दतें गुजर गईं
तुमसे मिले, देखे बिना
मेरे शहर की गलियां
पूछती हैं तुम्हारा हाल
रोज उलाहना देता है
दूर आसमान से छत पर उतरा चांद
चिढ़ाते हैं परदेश से आए पक्षी
आ भी जाओ
कि तुम्हारी प्रतिक्षा में
अनदेखे गुजर गए कई बसंत
बेमतलब सी लगीं
भीगे सावन की खुशगवार शामें
बसें, रेलें, टैक्सी
भी तो चलती होंगी
तुम्हारे शहर में?
या बस
न आने का बहाना ही चलता है