रूची शाही
तुम संजो सकते थे उस प्रेम को
किताब में रखे सूखे गुलाब की तरह
शायद उसकी सही जगह भी वही होती
पर नही तुमने पंखुरी-पंखुरी तोड़कर
ठुकरा दिया था उसे
तुमने सोचा नहीं होगा कभी
तुम्हारी कमी कैसे सही होगी उसने
भटकी भी होगी वो जीवन की
जाने किन-किन राहों पर
तुम्हारी जरूरत रही होगी
दुख सहने को, दुख रोने को
सिवा इसके उसने चाहा भी क्या होगा
मगर तुम मजबूर हो कह के चल दिये थे
सुनो! जो फूल पूजा के थाली में सजते
तुमने उन्हें किताबों में भी आसरा न दिया
और अब जब तुम कह रहे हो कि
तुमने उसकी यादें संजोयी है
तो हँसी आ रही है