गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’
117 आदिलनगर. विकासनगर
लखनऊ-226022
रुदन की तान पर नव मधुर गान ठहरा है।
नदी ढलान पर मेरा मकान ठहरा है।
चंद्रमा,सूर्य, ग्रह, नक्षत्र हैं सभी गति में
धरा है घूमती, बस आसमान ठहरा है।
धुँधलका तेज है, कुछ हवा का बवंडर है
धुएँ के बीच कहीं वायुयान ठहरा है।
शहर है व्यस्त, गाँव में भी घनी छाँव नहीं
शुष्क तालाब पर, आकुल किसान ठहरा है।
सुखद अतीत, बहुत दूर रह गया पीछे
भविष्य के भाग्य पर, वर्तमान ठहरा है।
मुझे पता है, विषम रात कट ही जाएगी
निकट पहाड़ के, स्वर्णिम विहान ठहरा है।
सभी न्यायालयों के ऊपर है, एक न्यायालय
उसी के न्याय पर, जनता का मान ठहरा है।
सावधान मुद्रा में जो गा रहे हैं जनगणमन
उन्हीं के कंधों पर शुचि संविधान ठहरा है।