प्रयागराज (हि.स.)। बीमारी के इलाज के निर्धारण के पहले य़ह बहुत जरूरी है कि हम बीमारी को सही ढंग से पहचान लें। जब हम प्लास्टिक की समस्या और उसके समाधान पर बात करते हैं तो सिन्गल यूज प्लास्टिक को प्रतिबंघित करने के प्रशासनिक आदेश को एक बड़े कदम के रूप में देखते हैं। तब महसूस होता है कि समस्या की वास्तविक विभीषिका से हम अभी तक अपरिचित हैं। असली खतरा हमको उस प्लास्टिक से है जो आँखों से नहीं दिखता, वो हमारे प्राणवायु में है, पीने के जल में है, हमारे भोजन में है। जिसके माध्यम से ये हमारे खून और टिस्यूज में पहुंच चुका है।
ये प्लास्टिक के कण इतने बारीक हैं कि वाष्प के साथ आसमान के बादल तक पहुंच जाते हैं और बरस जाने हैं सुदूर ग्लैशियर के पहाड़ों में, जंगलों में, सिंचाई के जल में इस प्लास्टिक के कण की मौजूदगी के कारण ये पहुंच गया है हमारे फल सब्जियों और अनाजों में। समुद्र में प्लास्टिक की चट्टानें मिलना शुरू हो गई हैं जिसको प्लास्टीग्लोमेरेट कहा जाता है। मनुष्य के द्वारा निर्मित यह अप्राकृतिक पदार्थ इस पृथ्वी के पोर-पोर को बीमार कर रहा है। वो जीव और वनस्पति जिनका इस प्लास्टिक से कोई लेना देना नहीं है, उनका जीवन भी संकट में है। आज दुनिया भर से ख़बरें आ रही हैं कि कहीं ये प्लास्टिक किसी के लिवर में मिला, किसी के हृदय में, तो किसी के जननांग में।. हर अंग में रक्त का प्रवाह होता है तो जो खून में होगा वो शरीर के अंगों में पाया जाना लाजमी है।
भारत में ही नहीं किंतु हर विकसित देश में देखा जा सकता है कि हर जगह प्लास्टिक व्याप्त है। विकसित देशों में शायद एक बूंद पीने का पानी नहीं मिलेगा जो प्लास्टिक को बोतल में ना कैद हो। पानी ही नहीं किंतु हर पेय और भोज्य पदार्थ प्लास्टिक के सम्पर्क में है। अपनी टिस्यूकल्चर की प्रयोगशाला में कार्य करते हुए एक दिन मुझे माइक्रोस्कोप के द्वारा समुद्री सीप के मेंटल टिशू में प्लास्टिक के कण मिले। शरीर के रक्षा तंत्र ने उन प्लास्टिक के कणों के इर्द गिर्द एक घेरा बना रखा था जो ट्युमर की तरह दिख रहे थे। मैंने प्लास्टिक के कण के श्रोत की खोज में नदी, तालाब, समुद्र आदि से जल के नमूने इकट्ठा किए तो पाया कि हर श्रोत में प्लास्टिक के कण मौजूद थे।
एक दिन टी बैग से निर्मित चाय की एक बूंद को माइक्रोस्कोप के नीचे रखा गया, तो पाया गया कि उसमें भी प्लास्टिक के लाखों कण मौजूद थे। प्लास्टिक कहीं भी किसी भी रूप में उपयोग में लाया जाये वो खतरनाक है। उदाहरण के तौर पर वाहनों के टायरों को मजबूत बनाने के लिए उनके रबर में 6पीपीडी नाम का प्लास्टिक रसायन मिलाया जाता है। इस तरह के रसायन जूतों के शोलों में भी मिलाए जाते हैं। यह रसायन टायरों और जूतों का वातावरण में 50 प्रतिशत माइक्रो प्लास्टिक का योगदान है, जो अत्यंत जहरीला होता है। आस्ट्रिया के वियना यूनिवर्सिटी में एक अध्ययन में बताया गया है कि इस तरह के टायरों और जूतों का वातावरण में 50 प्रतिशत माइक्रो प्लास्टिक का योगदान है।
पृथ्वी को इस भयंकर आपदा से बचाने के लिए उठाए गए कदम नगण्य हैं। सिर्फ सिन्गल यूज प्लास्टिक ही खतरा नहीं हैं, बल्कि हर प्लास्टिक धरती के जीवन पर अभिशाप है। प्लास्टिक का स्वभाव होता है कि वह अपना लचीलापन समय के साथ खो देता है और भंगुर होकर टूटता है। माइक्रान और नैनो साइज तक टूट जाता है। प्लास्टिक के टूटने की ये प्रक्रिया धूप और संक्षारक वातावरण में तेज हो जाती है। इस प्रकार खुले वातावरण में पड़ा प्लास्टिक हमारे साँस लेने वाली हवा, जल, हमारे भोजन श्रृंखला में पहुंच गया है। जनता की जागरूकता भी इस आपदा से निपटने के लिए नाकाफी है। क्योंकि वो करे क्या, उसके पास विकल्प ही नहीं है। उसके हर जरूरत का सामान प्लास्टिक के गिरफ्त में है। सरकारों को सख्त कानून बनाकर प्लास्टिक के उपयोग और उसको वातावरण में पहुंचने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाना होगा।