नई दिल्ली (हि.स.)। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान बीएसआईपी के वैज्ञानिकों ने ऐतिहासिक जलवायु गतिशीलता को बेहतर ढंग से समझने के लिए विशेष रूप से भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (आईएसएम) के संबंध में पैलियोक्लाइमैटिक तरीकों की खोज की है। यह शोध भविष्य के प्रभावों की बेहतर भविष्यवाणी करने के लिए जलवायु पैटर्न को समझने के महत्व को रेखांकित करता है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने मंगलवार को बताया कि पिछले 2000 वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में मानव इतिहास को आकार देने में जलवायु-संचालित कृषि परिवर्तनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह हाल के अध्ययन से पता चलता है, जिसमें पराग और मल्टीप्रॉक्सी अध्ययनों की मदद से पैलियोक्लाइमेट रिकॉर्ड से गंगा तट पर वनस्पति पैटर्न का पता लगाया गया है।
मध्य गंगा मैदान (सीजीपी) में पिछले होलोसीन (लगभग 2,500 वर्ष) के लिए पैलियोक्लाइमेट रिकॉर्ड की अत्यधिक कमी है, जो इस क्षेत्र में पिछले जलवायु पैटर्न को समझने में एक महत्वपूर्ण शोध अंतराल को उजागर करता है।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में सरसापुखरा झील से निकाले गए तलछट कोर से पराग (जो मिट्टी और तलछट में माइक्रोफॉसिल के रूप में जीवित रहता है) और अन्य मल्टीप्रॉक्सी विश्लेषण का उपयोग करते हुए, जिसे अर्थ सिस्टम पेलियोक्लाइमेट सिमुलेशन (ईएसपीएस) मॉडल द्वारा पूरक किया गया है, शोधकर्ताओं ने पिछले 2000 वर्षों के ऐतिहासिक भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (आईएसएम) पैटर्न का पुनर्निर्माण किया। इसमें भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ जलवायु परिवर्तनों को सहसंबंधित किया गया।
उन्होंने पाया कि बारी-बारी से गर्म और ठंडे एपिसोड (रोमन वार्म पीरियड, डार्क एज कोल्ड पीरियड, मीडियवल वार्म पीरियड और लिटिल आइस एज) ने वनस्पति पैटर्न को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इससे मानव पलायन को मजबूर हुआ और संभावित रूप से गुप्त, गुर्जर प्रतिहार और चोल जैसे प्रमुख भारतीय राजवंशों के उत्थान और पतन में योगदान दिया। यह अध्ययन कैटेना पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
इससे बदलती जलवायु के लिए अधिक उपयुक्त फसलों की पहचान करके, उत्पादकता बनाए रखने और सकल घरेलू उत्पाद की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए कृषि प्रथाओं को अनुकूल बनाया जा सकता है।