Thursday, December 19, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग सात: रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

लाय सजीवन लखन जियाए,
श्री रघुबीर हरषि उर लाए।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

अर्थ
श्री लक्ष्मण जी मेघनाथ के द्वारा किए गए शक्ति प्रहार के कारण मूर्छित हो गए थे और मृत्यु शैया पर थे। उस समय हनुमान जी ने संजीवन बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जिंदा कर दिया। जिससे श्री रामचंद्र जी ने खुश होकर के उनको अपने गले लगाया और उनकी बहुत तारीफ की और कहा कि तुम मेरे भाई हो।

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भावार्थ
इस चौपाई में तुलसीदास जी ने श्री हनुमान जी की स्तुति श्री लक्ष्मण जी के प्राणदाता के रूप में की है। श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार वे द्रोणा गिरी पर्वत पर गए। अनेक परेशानियों के बावजूद वे समय पर द्रोणागिरी पर्वत को ही लेकर के श्री लक्ष्मण जी के पास पहुंच गए। ब्यूटी का सेवन करने के उपरांत लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए। यह देख कर के श्री रामचंद्र जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। उसके बाद श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी की बहुत तारीफ की। उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो। यह सभी जानते हैं की श्री रामचंद्र जी भरत जी अत्यंत प्रेम करते थे।

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संदेश
केवल सगे संबंध ही नहीं कभी-कभी कोई रिश्ता ऐसा भी बन जाता है, जो इन से भी ऊपर होता है और ईश्वर-भक्त का रिश्ता ऐसा ही होता है।

इन चौपाइयों को बार बार पढ़ने से होने वाला लाभ
1-लाय सजीवन लखन जियाए, श्री रघुबीर हरषि उर लाए।
2-रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शारीरिक व्याधियों का निवारण होता है तथा अपने से बड़ों की कृपा प्राप्त होती है। अगर आपका बॉस आप से नाराज है या आप रोगों से ग्रस्त हो गए हैं तो आपको इन चौपाइयों का पाठ करना चाहिए।

विवेचना
इन चौपाइयों में हनुमान जी द्वारा किए गए बहुत से कार्यों में से एक कार्य का वर्णन है। इसमें उन्होंने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की है। संकटमोचन हनुमानाष्टक में इस बात को निम्नलिखित रुप में कहा गया है-
बाण लग्यो उर लछिमन के तब,
प्रान तज्यो सुत रावन मारो।
लै गृह वैध्य सुषेण समेत,
तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दई तब,
लछिमन के तुम प्राण उबारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकट मोचन नाम तिहारो ॥५॥

अर्थात- लक्ष्मण की छाती में बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हें मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में पड़ गये, तब आप वैद्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए, जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।

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इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाया, इसे पूरा योगदान हनुमान जी का ही है। सुषेण वैद्य को वे ही श्रीलंका से लेकर लाए थे, उसके कहने पर वे ही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने गए थे और जब संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई तो पूरा पर्वत उठाकर वे ही लक्ष्मण जी के पास लाए। सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी को निकालकर इसकी औषधि बनाकर लक्ष्मण जी को दिया और लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।

ऐसा ही गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक में भी छठे नंबर के घनाक्षरी छंद मैं दिया गया है-
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।।६।।
संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो।।

अर्थ- द्रोण जैसा भारी पर्वत, खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया। राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं ।।६।।

श्री लक्ष्मण जी ने मेघनाथ से युद्ध किया मेघनाथ ने उनके ऊपर शक्ति का प्रहार किया जिससे कि लक्ष्मण जी की मूर्छित हो गये। अब आप कल्पना करें एक भाई के मृत्यु शैया पर होने पर दूसरे भाई की क्या हालत होगी? भाई भी लक्ष्मण जी जैसा, जो कि अपने भाई के वनवास जाने पर उसके साथ राजमहल की खुशियों को छोड़ कर के जंगल की तरफ चल देता है? रामचंद जी को यह बात मालूम चलती है, उनकी हालत के बारे में रामचरितमानस में वर्णन किया है-
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

हनुमान जी सुषेण वैद्य को लेकर के आए। इसके उपरांत सुषेण वैद्य के सुझाव के अनुसार संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी पर्वत पर चल दिए। वहां से लौटने में हनुमान जी को विभिन्न बाधाओं की वजह से थोड़ी देर हो गई। इस समय आप तुलसीदास जी के शब्दों में श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनिए-
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥

इसमें 2 लाइनें अद्भुत है। पहला अगर मैं जानता कि वन जाने में मैं अपने भाई को खो दूंगा तो मैं अपने पिताजी के वचन को नहीं मानता। दूसरा इस दुनिया में सब कुछ मिल सकता है, लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिलता है। यह भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा है।
वाल्मीकि रामायण में श्री राम जी लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर अपने आपको काफी शक्तिहीन महसूस करते हैं-
शोणितार्द्रमिमन् वीरं प्राणैरिष्टतरं मम।
पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः॥

(वा रा/6/101/4)
अर्थात- श्री राम कहते हैं– लक्ष्मण को रक्त से यूं सने देख कर मेरी युद्ध करने की उर्जा खत्म हो रही है। लक्ष्मण मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं।
यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः।
अहमप्युपयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम्॥
(वा रा/6/101/13)

अर्थात- अगर लक्ष्मण को कुछ हो जाता है तो मैं भी उसी प्रकार मृत्यु के पथ पर अपने भाई लक्ष्मण के साथ चला जाउंगा, जैसे वो वन में मेरे पीछे-पीछे चले आया था। जब लक्ष्मण जी संजीवनी बूटी से वापस मूर्छा से वापस लौट आते हैं तब श्री राम उनसे कहते हैं-
न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा।
को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते॥
(वाल्मीकि रामायण/ युद्ध कांड/101/50)

अर्थात- तुम्हें अगर कुछ हो जाता तो मेरे लिए फिर इस संसार में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, न तो मेरे जीवन का कोई उद्देश्य रह जाता, न सीता और न ही विजय मेरे लिए महत्वपूर्ण रह जाती।

मेघनाथ की मृत्यु श्री लक्ष्मण जी के हाथों हुई, परंतु अपनी मृत्यु के पहले मेघनाद ने, लक्ष्मण जी को दो बार हराया था। पहली बार उसने श्रीलक्ष्मण जी और श्रीरामचंद्र जी को नागपाश में बांध दिया था। दूसरी बार जब उसने लक्ष्मण जी को शक्ति के प्रहार से मूर्छित कर दिया था। दोनों ही मौकों पर हनुमान ने अपने बल, बुद्धि और श्री राम भक्ति के बल पर उन्हें निश्चित मृत्यु से बचाया था। इसके अलावा अहिरावण से भी श्री राम और श्री लक्ष्मण को हनुमान जी ने ही बचाया था।

अब यहां पर एक नया प्रश्न उठता है। श्री रामचंद्र जी चार भाई थे- श्री राम जी, श्री भरत जी, श्री लक्ष्मण जी और श्री शत्रुघ्न जी। श्री रामचंद्र जी का तीनों भाइयों से बहुत अधिक प्रेम था। तीनों भाइयों से बराबर प्रेम था। श्री राम जी किसी भी भाई से दूसरे भाई की तुलना में कम प्रेम नहीं करते थे। फिर यहां श्री रामचंद्र ने यह क्यों कहा है कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। ऐसा कहना तभी उचित है जब श्री राम जी श्री भरत जी से दूसरों भाई की भाइयों की तुलना में कम या ज्यादा प्रेम करते हों।
मन्येऽहमागतोऽयेध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः।
मम प्राणात्र्पियतरः कुलधर्ममनुस्मरन्॥ (वा रा/2/97/9)

अर्थात- हे लक्ष्मण, लगता है कि भरत अपने नानी घर से अपने भाइयों के प्रति प्रेम के वश में आकर अयोध्या लौट गए हैं। भरत तो मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं। श्री राम यहां अपने भाइयों के प्रति प्रेम का इज़हार करते हुए वाल्मीकि रामायण में यहां तक कहते हैं कि बिना भाइयों के उन्हें संसार की कोई भी खुशी नहीं चाहिए।
यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं चापि मानद।
भवेन्मम सुखं किंचिद्भस्म तत्कुरुतां शिखी॥
(वा रा/२/९७/८)

अर्थात- हे लक्ष्मण यदि मुझे भरत, शत्रुघ्न और तुम्हारे बिना संसार की सारी खुशियां भी मिल जाएं तो वो अग्नि में राख हो जाएं, मुझे वो खुशियां नहीं चाहिए। अगर हम इस श्लोक पर गौर करें तो हम मानेंगे कि श्री रामचंद्र जी सभी भाइयों से बराबर प्रेम करते थे और यह सत्य भी है। अगर यह सत्य है तो फिर उन्होंने हनुमान जी को भरत जी के बराबर प्रिय क्यों कहा।

निस्वार्थ प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम माना जाता है। प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आपका प्रेमी आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। श्री रामचंद्र जी से उनके तीनों भाई अत्यधिक प्रेम करते थे। श्री लक्ष्मण जी ने तो सब कुछ छोड़ कर के, श्री राम चंद्र जी के मना करने के बावजूद, वन में उनके साथ 14 साल रहे। श्री रामचरितमानस में लक्ष्मण जी ने स्वयं कहा है कि आप मेरे सब कुछ है आपके बगैर मैं रह नहीं सकता। अर्थात श्री लक्ष्मण जी के पास रामचंद्र जी के साथ रहने का उद्देश्य था। जिसकी वजह से उन्होंने रामचंद्र जी की बात न मान करके वनवास में उनके साथ रहे। यह उद्देश्य था श्री लक्ष्मण जी का श्री रामचंद्र जी के प्रति अत्यधिक प्रेम।
श्री भरत जी भी श्रीरामचंद्र जी से अत्यधिक प्रेम करते थे। वे भी श्री रामचंद्र जी के बगैर रह नहीं सकते थे। परंतु रामचंद्र जी के आदेश मात्र से वे उनके साथ नहीं गए, परंतु अयोध्या में भी निवास नहीं किया। अयोध्या के बाहर रहे। उसी प्रकार का जीवन जिया जैसा श्री राम चंद्र जी वन में व्यतीत कर रहे थे। निश्चित रूप से भरत जी अगर श्री राम चन्द्र जी के साथ वन में रहते तो ज्यादा संतुष्ट रहते। उनके मन में तसल्ली रहती कि वे श्री रामचंद्र जी के साथ हैं। यहां पर आकर उनका प्रेम निस्वार्थ प्रेम हो जाता है। इस प्रकार भरत जी का प्रेम अन्य भाइयों के प्रेम से ऊपर हो गया।

कुछ लोग इसका अलग तर्क देते हैं। इस संबंध में एक आख्यान प्रचलित है। यज्ञ के उपरांत महाराजा दशरथ को रानियों को देने के लिए जो खीर मिली थी उसके तीन हिस्से किया गए। एक हिस्सा महारानी कौशल्या को दिया गया और दूसरा हिस्सा महारानी कैकेई को प्राप्त हुआ। तीसरा हिस्सा जो महारानी सुमित्रा को मिलना था उसको एक चील लेकर उड़ गई और उड़ करके वह महारानी अंजना के पास पहुंची। चील को इस यात्रा में 6 दिन लगे। इस खीर को फिर महारानी अंजना ने खाया। खीर के मूल भागों को कौशल्या, कैकेयी और अंजनी ने खाया था। इसलिए राम, भरत और हनुमान समान भाई थे। महारानी सुमित्रा को अपनी खीर में से थोड़ा हिस्सा महारानी कौशल्या ने दिया और थोड़ा हिस्सा महारानी कैकेई ने। इस प्रकार महारानी सुमित्रा के पास दो हिस्सों में खीर पहुंची और महारानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। उनमें से श्री लक्ष्मण जी का स्नेह श्री रामचंद्र जी से ज्यादा रहा और श्री शत्रुघ्न जी का स्नेह श्री भरत जी से ज्यादा रहा। महारानी सुमित्रा ने मूल भाग के विभाजित भाग को खाया था- इसलिए लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनके अर्थात श्री रामचंद्र जी श्री भरत जी और श्री हनुमान जी के बराबर के नहीं थे। इस विचार से यह प्रगट होता है रामचंद्र जी हनुमान जी से कहना चाहते हैं कि मैं, आप और श्री भरत खीर के मूल भाग से उत्पन्न हुए हैं। उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितना ज्ञान हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई में डाला है।

जय श्री राम
जय हनुमान

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