Thursday, December 19, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग पांच: राम लखन सीता मन बसिया

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

बिद्यावान गुनी अति चातुर

राम काज करिबे को आतुर

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया

राम लखन सीता मन बसिया

अर्थ

आप विद्यावान, गुनी और अत्यंत चतुर हैं और प्रभु श्रीराम की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं। आप प्रभु श्रीराम की कथा सुनने के लिए सदा लालायित रहते हैं। राम लक्ष्मण और सीता सदा आपके ह्रदय में विराजते हैं।

भावार्थ

सकल गुण निधान हनुमान जी समस्त विद्याओं में पारंगत हैं। समस्त गुणों को धारण करने वाले और अत्यंत बुद्धिमान हैं। भगवान सूर्य से सभी ज्ञान प्राप्त करने के कारण उनको वेद पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त है। ब्रह्म की दो शक्तियां हैं पहले स्थिर और दूसरी गतिज। हनुमान जी दोनों शक्तियों के स्वामी हैं। भगवान सूर्य से पूरी शिक्षा इन्होंने सूर्य के साथ चलते हुए प्राप्त की है। इसी प्रकार से भगवान राम के हित कार्यों का संपादन वे सदैव आतुरता से करते हैं।

संदेश

व्‍यक्ति अपने ज्ञान और गुणों के आधार पर किसी के भी मन में अपने लिए स्‍थान बना सकता है। जैसे श्री हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम के मन में बनाया है।

चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ

1-बिद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर

2-प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से ज्ञान, बुद्धि, रामकृपा और यश प्राप्त होता है।

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विवेचना

सनातन धर्म मानने वालों के हृदय में, उनके खून में, हनुमान चालीसा बसी हुई है। जहां तक मेरा ज्ञान है अगर कोई काव्य सबसे ज्यादा बार बोला जाता है तो वह हनुमान चालीसा ही है। यह भी सत्य है कि हनुमान चालीसा को केवल काव्य रचन कहना एक अपराध है। अतः में हनुमान चालीसा को व्यक्ति के नस नस में भगवान के प्रेम को भरने वाला मंत्र या स्त्रोत कहना पसंद करूंगा। हर चौपाई का अपने आप में एक रहस्यमयी अर्थ है। जो व्यक्ति इस रहस्यमय अर्थ को जान जाएगा उसकी उस चौपाई से जुड़ी हुई समस्या भी हल हो जाएगी।

हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई अपने आप में एक सिद्ध मंत्र है। इसे हर कोई इस कलयुग में जाप कर अभीष्ट को पा सकता है। जैसे कि इस चौपाई का बार बार जाप करके आप बुद्धि और चतुराई  तथा अपने स्वामी के कार्य को करने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप यह समझते हैं कि आपके अंदर बुद्धि या चतुराई की कमी है अथवा आपका मालिक, अधिकारी या बॉस हमेशा आपसे नाराज रहता है तो आपको इस चौपाई का प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए। इस चौपाई के प्रथम भाग में हनुमान जी के अंदर तीन विशेषताओं के बारे में बताया गया है। उनकी पहली विशेषता है कि वे विद्यावान हैं। दूसरी विशेषता है कि वे गुणवान है तथा तीसरा कि वे अत्यंत चतुर हैं। सुनने में यह तीनों चीजें एक दूसरे के पर्यायवाची समझ में आती है। परंतु ऐसा नहीं है।

विद्यावान का अर्थ होता है जिसके पास विद्या रूपी धन हो। कोई व्यक्ति रसायन शास्त्र में निपुण हो सकता है। कोई व्यक्ति के पास हिंदी का ज्ञान बहुत अच्छा हो सकता है। परंतु हनुमान जी तो सूर्य देव द्वारा दी गई शिक्षा के कारण, सभी तरह की विद्याओं से परिपूर्ण हैं। जैसा कि हम जानते हैं विद्या का सामान्य अर्थ है- ज्ञान, शिक्षा और अवगम। महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार जिससे पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो उसे विद्या कहते हैं। विद्यावान का अर्थ होता है व्यक्ति के पास सभी तरह के विद्याओं के यथार्थ स्वरूप के बारे में संपूर्ण ज्ञान। हनुमान जी के पास सभी तरह के विषयों का पूर्ण ज्ञान है अतः वे विद्यावान हुए।

तुलसीदासजी ने हनुमानजी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को बड़ा बनाता है वह विद्या है। आज विद्या की तृष्णा बढी नही है। आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है, बुद्धिजीवी है। बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये। हनुमान जी गुणी भी हैं। अर्थात सभी प्रकार के गुण उनके अंदर विद्यमान है। गुणी शब्द का अर्थ होता है, जिसमें अनेकों गुण हो अर्थात गुणसंपन्न। कोई विशेष कला या विद्या जानने वाला योग्य व्यक्ति को भी गुणवान कहते हैं। हनुमान जी के अंदर सभी तरह के गुण जैसे उड़ने की कला तैरने की कला युद्ध कला शास्त्रों का ज्ञान सभी तरह के गुण उनके पास थे।

वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणाें के लिये कहा है-

तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय:। 

पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा।।

(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं।) धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता,  निराभिमानिता आदि अनेक गुणों से सम्पन्न हनुमानजी को तुलसीदासजी ने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘सकलगुणनिधानं’ के उद्घोष से सादर वन्दना की है-

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, 

रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि।।

हनुमान जी चतुर भी हैं। चतुर शब्द का अर्थ है किसी भी व्यक्ति की वह विशेषता, जिससे वह व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करके अपने कार्यों को आसानी से कर सके या विकट परिस्थितियों का सामना आराम से कर सकें। पूरी रामायण में हनुमानजी की चतुराई के कई उदाहरण है। हनुमान जी जब रामचंद्र जी से सबसे पहले ब्राह्मण वेश में मिलते हैं। वे पूरी बातें बहुत अच्छी संस्कृत में करते हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम जी ने जैसे ही महावीर हनुमान जी को पहली बार देखा तो वे जान गए थे कि वही उनके सारे कार्यों को करने में सक्षम हैं। श्री राम के पास जब पहली बार हनुमान जी सुग्रीव का संदेश लेकर जाते हैं, तभी उनकी विद्वता और वाक चातुर्य से प्रसन्न होकर श्री राम उन्हें अपना लेते हैं। श्री राम महावीर हनुमान जी के ज्ञान और विनम्रता को देख कर लक्ष्मण जी से कहते हैं-

“लक्ष्मण तुम इन बटुक को देखो इसने शब्द शास्त्र  (व्याकरण) कई बार पढ़ा है। इसने कई बातें कहीं पर उनके बोलने में कहीं अशुद्धि नहीं आई।

 श्री रामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैन वटुरूपिणम्।

 शब्दशास्त्रमशेषणं श्रुतं नूनमनेकधा।।

 (अ रा/किं का/1/17-18)

एवम् विधो यस्य दूतों न भवेत् पार्थिवस्य तु।

सिद्ध्यन्ति हि कथम तस्य कार्याणाम् गतयोSनघ।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात- हे लक्ष्मण अगर किसी राजा के पास हनुमान जैसा दूत न हो तो वो कैसे आपने कार्यों और साधनों को पूरा कर पाएगा?

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात- हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

हम सभी जानते हैं कि दूत का कार्य सबसे चतुराई भरा कार्य होता है। दूसरी बार हनुमान जी की चतुराई का परिचय तब प्राप्त होता है जब सुग्रीव पंपापुर का राज सिंहासन पाने के उपरांत रासलीला में डूब गए थे। माता जानकी का पता लगाने का  कोई प्रयास नहीं कर रहे थे। उस समय हनुमान जी ने बड़ी चतुराई के साथ सुग्रीव को समझाया। जिसके उपरांत सुग्रीव ने वानर सेना भेज करके सीता जी को पता करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया। समुद्र के किनारे जब यह ज्ञात हुआ की रावण मां सीता को समुद्र पार लेकर गया है, तब सबकी समझ में यह आया केवल हनुमान जी ही लंका जाकर सीता मां का पता लगाकर वापस आ सकते हैं। जामवंत के प्रस्ताव पर हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र को पार कर लंका के लिए चल दिए। रास्ते में नागों की माता सुरसा मिली और उन्होंने भगवान हनुमान को अपने मुंह में बंद करना चाहा।  हनुमान जी पहले अपना आकार बढ़ाते रहे फिर एकाएक आकार कम करके सुरसा के मुंह से होकर बाहर निकल आए। सुरसा की प्रतिज्ञा भी पूरी हो गई और हनुमान जी को आगे जाने में आ रही बाधा भी समाप्त हो गई। रामचरितमानस में इसका गोस्वामी तुलसीदास द्वारा सुंदर वर्णन किया गया है-

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

तासु दून कपि रूपदेखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।

अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥

सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया। जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया।

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।

मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥

उसके मुंह में पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया। उस वक़्त सुरसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! देवताओं ने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है। इसी तरह से बाल्मीकि रामायण में हनुमान जी द्वारा सिंहिका के मुख में प्रवेश कर अपने-पैने नखों से उसके मर्म स्थल को चीर-फाड़कर मन के समान  वेग से से वहां से निकलकर फिर ऊपर आकाश मार्ग में जाने के का वर्णन किया गया है। 

ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।

उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।

( 5.1.194/सु का / वा रा)

हनुमान जी द्वारा लंका के अंदर किए गए चतुराई पूर्व कार्यों के कई उदाहरण हैं, जैसे माता सीता से मिलने के पहले वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने पेड़ पर बैठे बैठे सोचा की पहले धीरे-धीरे रामचंद्र जी के संदेशों का वाचन किया जाए, जिससे मां सीता को उन पर विश्वास हो सके और उसके उपरांत मां सीता से मिला जाए और उनको सब कुछ बताया जाए।

युक्तं तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः।

समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम्।।

(वा रा / सु का /5.30.6 )

मुझे इस समय अप्रमेय और सब प्राणियों पर दया करने वाले श्री रामचंद्र की पत्नी को जो पति के दर्शन की अभिलाषणि हैं धीरज बधाना उचित होगा। इस प्रकार सोचते विचारते बड़े बुद्धिमान हनुमान जी ने अपने मन में निश्चय किया कि अब मैं श्री रामचंद्र की कथा कहना प्रारंभ करें।

इति स बहुविधं महानुभावो

जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः।

मधुरमवितथं जगाद वाक्यं

द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्।।

(वा रा / सु का /5.30.44 )

इस प्रकार अनेक प्रकार से सोच विचार कर श्री रामचंद्र जी की भार्या जानकी जी को हनुमान जी ने डाली पर बैठे ही बैठे मधुर शब्दों में श्री राम जी का संदेश कहना प्रारंभ किया। इसके उपरांत बहुत सारी बातें कर करके उन्हें ने सीता जी को संतुष्ट किया।

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रामचरितमानस में इसी बात को थोड़ा दूसरे ढंग से कहा गया है। हनुमान जी अशोक वाटिका में पेड़ के ऊपर बैठे हैं। उसी पेड़ के नीचे मां जानकी सीता जी विलाप कर रही हैं। अशोक वृक्ष से आग की मांग की। हे अशोक वृक्ष तुम मुझे अग्नि प्रदान करो। 

पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥

सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥ 

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड )

चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर।

तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी को कल्प के समान बीता। इसी समय हनुमान जी ने रामचंद्र जी द्वारा दी गई मुद्रिका को जमीन पर डाला, जो आग जैसी चमक रही थी। यह हनुमान जी की चतुराई थी और हनुमान जी के इस कार्य से सीता जी को विश्वास हो गया कि रामचंद जी के यहां से कोई आया है।

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

इसके उपरांत हनुमान जी अपना परिचय अत्यंत सुंदर ढंग से चतुराई पूर्वक देकर  सीता जी के दुख को समाप्त किया। इसी प्रकार उन्होंने रावण के दरबार में चतुराई पूर्वक वार्तालाप किया और पूरे लंका को जला डाला। चलते समय उन्होंने मां जानकी से कहा कि आप मुझे कुछ निशान दिजिए। उसे मैं श्री रघुनाथ जी को दिखा सकूं। यह उसी प्रकार होगा जिस प्रकार चलते समय श्रीरामचंद्र जी ने निशानी के रूप में अपनी अंगूठी दी थी।

 मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

हनुमान जी ने कहा- हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। हनुमान जी की यह मांग रामचंद्र जी को विश्वास दिलाने के लिए अत्यंत उपयुक्त थी। तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया। इसके उपरांत हनुमान जी ने सीता जी को समझा कर धीरज दिया और चल दिए।

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास पहुंचने के लिए चल दिए।

ऐसे ही हनुमानजी की चतुराई के बहुत सारे उदाहरण हैं, अगर हम सभी उदाहरण  बताने लगेंगे तो पूरी किताब सिर्फ इसी से भर जाएगी। हनुमान जी राम जी के कार्यों को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। “राम काज करबे को आतुर “। इस प्रकार हनुमानजी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदासजी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’। हनुमानजी का संम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्कृष्ट है।

तुलसीदास जी लिखते है कि हनुमान जी ज्ञानी थे तथा प्रभु कार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। भगवान ने हमें अनमोल मनुष्य जन्म दिया है। सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला। मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही, लेकिन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत बडे ज्ञान की बात है। यदि हमे कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमे ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी। हमें अनमोल मानव जन्म मिला लेकिन उसकी कीमत हमने समझी क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर की दी हुई अमूल्य भेंट है। मानव जीवन, प्रभु कृपा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सत्कर्मों का परिणाम है। हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु-संतों ने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है। ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्रीमद्आद्यशंकराचार्य ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है। मानव जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नही है। बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौनसा काम करना है? इस सम्बंध मे पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये। मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है।

हमको भगवानने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है। उससे हमे मार्गदर्शन होता है। मानव जीवन का पूर्ण उपयोग करके उसकी दीपावली करनी चाहिये, उसकी होली नहीं होने देनी है। मानव देह दुलर्भ है। यह मानव देह बार बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में करुँगा, ऐसा विचार बिल्कुल नहींं चलेगा। अगले जन्ममें मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैने जो विकास (Development) किया होगा। मानसिक विकास साध्य किया होगा। उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है। यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानव जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियों ने, संतों ने जीवन जी कर दिखाया है।

हनुमान जी के चरित्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमान जी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उसी प्रकार यदि हम हनुमान जी के भक्त हैं तथा हनुमान जी की तरह प्रभु के लाड़ले भक्त बनना है, तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये।

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यहां पर आप आतुर शब्द पर विशेष ध्यान दें। आतुर का अर्थ होता है “व्यग्र “। जिसको बहुत जल्दी हो। जो दिनों का काम सेकंडो में करना चाहता हूं।

वास्तविकता यह है कि काम करने वाले 4 तरह के होते हैं। पहले वे होते हैं जिनको अगर काम दिया जाए तो वे कोई न कोई बहाना बनाकर काम को टाल देना चाहते हैं। मैं जब अपनी नौकरी में था तो मेरे पास कुछ इस तरह के लोग थे। उनकी संख्या बहुत कम थी। इनको कोई काम बताने पर वे तत्काल कोई न कोई समस्या बता कर काम को टालने का प्रयास करते थे। ऐसे लोगों का मैं नाम बताना पसंद नहीं करूंगा।

दूसरे तरह के लोग वे होते हैं, जिनको अगर काम दे दिया जाए तो वे काम को कर देंगे। परंतु अगर उनको काम बताया न जाए तो कार्य लंबित होने की जानकारी होते हुए भी वे काम को नहीं करते हैं। ऐसे लोग किसी भी संस्थान मे करीब-करीब 80% होते हैं। प्रबंधक को अपना संस्थान को ठीक से चलाने के लिए ऐसे लोगों पर हमेशा निगाह रखनी पड़ती है। जिससे कि इस तरह के लोग सदैव उपयोगी हो सकें। अगर प्रबंधक ऐसे लोगों पर अपना निरंतर ध्यान नहीं रखेगा तो संस्थान की 80% कार्य शक्ति से वह कार्य नहीं ले पाएगा।

तीसरे तरह के लोग ऐसे होते हैं जिनको अगर काम बता दिया जाए तो वह काम को तत्काल प्रारंभ कर देते हैं। अगर उनको काम ना भी बताया जाए और उनको ज्ञात हो जाए कि उनके हिस्से का कार्य लंबित है तो वे उसे तत्काल पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए उनको किसी आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।

चौथे तरह के लोगों को किसी प्रकार की आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। वे सदैव इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके संगठन को किस कार्य से लाभ हो सकता है। अगर उनको किसी कार्य के बारे में पता चले जिससे संगठन को लाभ हो सकता है, तो वह तुरंत उस कार्य को करने में जुट जाते हैं। वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी कार्य समाप्त हो जाए। इनको किसी प्रकार के आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे लोग किसी भी संगठन में एक या दो ही होते हैं। ऐसे लोग संगठन की जान होते हैं। इनके अंदर संगठन के कार्य को जल्दी से जल्दी समाप्त करने की जागरूकता होती है। यह 24 घंटे 365 दिन संगठन के कार्यों के लिए लगे रहते हैं। हनुमान जी इस चौथे तरह के व्यक्ति थे। इनको इस बात की आतुरता रहती थी श्री रामचंद्र जी का कार्य कितनी जल्दी समाप्त हो जाए। इसका एक उदाहरण सुंदरकांड के प्रारंभ में ही मिलता है। हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र के ऊपर जा रहे थे। उस समय समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा की है मैंनाक तुम अपने ऊपर हनुमान जी को विश्राम दो। परंतु हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को जल्दी करने के लिए इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। वे बोले कि रामचंद्र जी के काम किए बिना उन्हें विश्राम कैसे हो सकता है।

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

बाल्मीकि रामायण में भी यह घटना आई है सुंदरकांड के प्रथम सर्ग में श्लोक क्रमांक 88 से 131 तक लगातार पहले समुंद्र द्वारा मैनाक पर्वत से और फिर मैनाक पर्वत द्वारा हनुमान जी से रुक कर विश्राम करने हेतु प्रार्थना की गई। समुद्र और मैनाक पर्वत ने उनके विश्राम करने के लिए बहुत सारे तर्क दिए। हनुमान जी ने इन सभी तर्कों को यह कह कर समाप्त कर दिया कि जब तक रामचंद्र जी का काम नहीं होता है, तब तक वह विश्राम नहीं कर सकते हैं।

त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते।

प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरे।। 

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/5.1.132।।)

मुझे काम करने की अत्यंत जल्दी है और मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस कार्य को समाप्त किए बगैर मैं कहीं विश्राम नहीं करूंगा। इतना कह कर के मैनाक पर्वत को प्रणाम करके हनुमान जी आगे बढ़ते हैं।

इसी प्रकार जब हनुमान जी हिमालय पर्वत पर संजीवनी बूटी लाने के लिए पहुंचे तब वहां पर उन्हें ऐसा लगा की पूरा द्रोणाचल पर्वत ही संजीवनी बूटी जैसा प्रकाशमान है। तब वे पूरे द्रोणाचल पर्वत को उठाकर तत्काल चल दिए। उन्होंने संजीवनी बूटी को खोजने के लिए वहां पर एक क्षण भी बर्बाद नहीं किया।

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥

गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥

भावार्थ- उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान्‌जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए।

हनुमान जी ने संजीवनी बूटी को लाने में अपने बल और बुद्धि का पूर्ण परिचय दिया। उनके मार्ग में कालनेमि का कपट, औषधि का पहचान ना होना, भरत जी द्वारा बाण लगने पर घायल होना आदि बहुत सारे परेशानियां आंयीं। परंतु इन सभी के बावजूद उन्होंने समय से संजीवनी बूटी को श्री रामचंद्र जी के सेना में सुषेण वैद्य के पास पहुंचाया।

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।

लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो।।

आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो। को०-5 

अर्थ- जब मेघनाद ने लक्ष्मण पर शक्ति का प्रहार किया और लक्ष्मण मूर्छित हो गए तब हे हनुमान जी आप ही लंका से सुषेण वैद्य को घर सहित उठा लाए और उनके परामर्श पर द्रोण पर्वत उखाड़कर संजीवनी बूटी लाकर दी और लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा की।

इस प्रकार हमेशा हनुमान जी ने रामचंद्र जी के ऊपर आए किसी भी कष्ट को अपने ऊपर माना है और उसे तत्काल दूर किया है।

भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे और हनुमान जी उनके इस कार्य मे पूर्ण सहयोगी बने। हमें भी प्रभु कार्य करना है तो क्या करना है? मनुष्य की एक विशिष्ट संस्कृति है। व्यक्तिगत विकास के लिए हमें प्रयत्न करने चाहिये। संस्कृति की रक्षा के लिये भी प्रयत्नशील रहना चाहिये। मनुष्य की विशिष्ट संस्कृति का शास्त्रकारों ने चित्रण किया है। वह संस्कृति फिर से खड़ीकरने के लिए कर्म करना है। प्रभु कार्य करने के बाद क्या होता है? मनुष्य की चित्त शुद्धि होती है। भगवान दर्ज कर रखेंगे, इस विश्वास से प्रभु कार्य करना है। प्रभु के पास ले जानेवाला प्रभु कार्य करो। मंगलता, पवित्रता खड़ीकरने के लिये कर्म करो। कर्म करना यह प्रथम बात है, उसका फल कितना मिलेगा यह गौण बात है। गीता कहती है-

‘‘कर्मण्येवधिकारस्ते माफलेषुकदाचन्’’। 

हमें प्रभु कार्य करना है तो कौन सा कर्म करना है? प्रभु के करोड़ों पुत्र अपने पिता से बिछुड गये हैं। उनके आचरण से ऐसा प्रतीत होता है मानो वे पिता को पहचानते ही नहीं हैं। उनके अंदर भगवान श्री राम के प्रति श्रद्धा भाव जागृत करना ही भगवान का कार्य है।

भगवान के प्रति कृतज्ञता जाग्रत होने पर श्रीमदाद्यशंकराचार्य के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की यह पंक्ति याद आयेगी-

‘‘मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समान हि’’। 

भगवान! इस जगतमें मुझ जैसा पातकी कोई नहीं है। जो बैल है वह बैल जैसा आचरण करता है। परन्तु मैं बैल न होते हुए भी बैल जैसा आचरण करता हूँ। इसलिए मै पातकी हूँ। हम गीता-रामायण का स्वाध्याय नहीं करते, गीता के प्राणवान, तेजस्वी विचारों का चिंतन, मनन नहीं करते है, यह पाप है। गधा, घोड़ा, कुत्ता, चिड़िया, कौआ गीता-रामायण नहींं पढते और मैं भी नहीं पढता हूँ। मनुष्य पशु-पक्षी नहीं है, फिर भी वह पशु जैसा रहता है। मेरे पास शक्ति होते हुए भी मैने कुछ नहीं किया। बैल के हाथ नहीं है, परन्तु मेरे हाथ है। मैने हाथों का सदुपयोग नहीं किया। कौए के पास वाणी नहीं है मेरे पास है। परन्तु इस वाणी से न मालूम मैने कितने घर जलाये है। गधे को बुद्धि नहीं है, मेरे पास बुद्वि है। परन्तु इस बुद्धि से मैंने दुनिया का सत्यानाश ही किया। मैं आपका काम करुँ इसलिये आपने ये शक्तियाँ मुझे दी परन्तु मैंने इन सबका गलत मार्ग में प्रयुक्त किया है।

लोगों की अस्मिता (आत्मगौरव) को जागृत करना, उनको स्वच्छ बनाकर ईश्वराभिमुख करना शनै: शनै: उनको उन्नति की ओर ले जाना यह सबसे महान भगवद्कार्य है। इसे ही तप कहते है। वैदिक विचारधारा ही इतनी सुन्दर है कि उससे जीवन तेजस्वी, प्रेममय और उदार बनता है। कृष्ण और राम के विचाराें को प्रत्येक झोपड़ी-महल में ले जाने की प्रबल इच्छा हममें होनी चाहिये। जिस खोखे (शरीर) में साक्षात विश्वंभर आकर विराजमान हुए है, उस खोखे (शरीर) में निराशा, असहायता, दुर्बलता, निस्तेजता, असन्तोष आदि आकर बैठे हैं। ऐसे जीवन का क्या अर्थ है?

भगवान को फूल चढ़ाने में कुछ भी अनुचित नहीं है। भगवान को फुल तो चढ़ाने ही चाहिये। परन्तु केवल फुल चढ़ाने में ही भक्ति पूर्ण नहीं होती। प्रभु से विन्मुख हुए लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें प्रभु के सन्मुख लाना और उनका जीवन पुष्प खिलाकर प्रभु चरणों में रखना ही सच्ची सेवा है। समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचकर उसके जीवन में राम व कृष्ण को प्रतिष्ठित करना ही प्रभु कार्य है। जिस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव, अंगद तथा समस्त वानर सेना को प्रभु की ओर उन्मुख कर प्रभु कार्य करने की प्रेरणा दी। उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमान भक्त तथा प्रभु के प्रिय बन सकेंगे।

जय हनुमान

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