अमेरिका और उसके सहयोगी देशों नाटो की सेना की वापसी की तिथि निश्चित होने के साथ ही यह अनुमान सहज रूप से लगाया जा रहा था कि अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक एवं संसदीय व्यवस्था के अनुरूप बनी सरकार का आतंकी संगठन तालिबान द्वारा तख्तापलट किया जा सकता है। आखिर में 15 अगस्त 2021 की तारीख को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान लड़ाकों के कब्जे के साथ ही यह बात सत्य साबित हो गई।
अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गत दिनों अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान कब्जा नहीं कर पाएगा, क्योंकि अमेरिकी सेना द्वारा अफगानी सैन्य बलों, पुलिस बलों एवं आसूचना संगठनों को पूरी तरह प्रशिक्षित किया गया है। परंतु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका तालिबान की वास्तविक शक्ति का आंकलन करने में विफल साबित हुआ और अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए जल्दबाजी में लिए गए निर्णय के कारण न केवल अफगानी जनता बल्कि दक्षिण एशियाई देशों के साथ ही विश्व के उन सभी देशों को जो लोकतांत्रिक एवं संसदीय व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, एक गहन संकट में डाल दिया।
उल्लेखनीय है कि अफगान संकट की यह नींव जो बाइडेन से पूर्व के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिन्हें अपने कार्यकाल के दौरान एक अड़ियल एवं लापरवाह राष्ट्रपति के रूप में ही अधिक पहचान प्राप्त हुई, ने ही डाल दी थी। फ़रवरी 2020 में अमेरिका ने तालिबान के साथ अफगानी समस्या का स्थायी समाधान निकालने के लिए शांति वार्ता शुरू की। इस शांति वार्ता के कारण तालिबान को विश्व बिरादरी के समक्ष एक अलग अहमियत प्राप्त हुई क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मेज पर वार्ता का अर्थ युद्ध की संभावित परिस्थितियों को रोकना ही होता है।
इस वार्ता से तालिबान को एक अलग प्रकार का मनोबल प्राप्त हुआ और अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा के साथ ही उसने अफगानिस्तान में अपने हमलों की तीव्रता बढ़ा दी और प्रांतों की राजधानी पर कब्जा करना शुरू कर दिया। हेरात एवं कंधार जैसे महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा कर आखिर में वह राजधानी काबुल तक पहुंचने में सफल रहा और परिणामस्वरूप अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी को देश छोड़कर ताजिकिस्तान जाना पड़ा जहां वह अपना निर्वासित जीवन व्यतीत करेंगे और इंतजार करेंगे उस दिन का जब अफगानिस्तान में तालिबानी शासन समूल नष्ट हो जाए।
अमेरिका का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती उसके लिए विश्व के अन्य सैन्य अभियानों में से सबसे अधिक बोझिल एवं खर्चीला साबित हुआ जबकि वास्तविकता यह है कि अफगानिस्तान से रुसी सैनिकों की वापसी के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर तालिबान के पालन-पोषण का स्वार्थ से भरा कार्य किया था। अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना की संपूर्ण वापसी के लिए 31 अगस्त 2021 की तिथि निश्चित की थी, परंतु इस तिथि से पूर्व ही उसकी 95 प्रतिशत से अधिक सेना वापसी कर चुकी है और बगराम सैन्य अड्डा जिस पर कब्जे के साथ ही अमेरिकी एवं नाटो सेना ने तालिबान के प्रभाव को एक सीमा तक न केवल कम कर दिया था, बल्कि उसे अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था, का जल्दबाजी में रातों-रात खाली करना आश्चर्यजनक रहा।
ऐसा महसूस हो रहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अप्रत्यक्ष रूप से हार स्वीकार कर लौट चुका है क्योंकि जिस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया था अपने उन मंसूबों को प्राप्त करने में वह पूरी तरह विफल साबित हुए और अब अमेरिका अफगानी नागरिकों को तालिबानी आतंकियों के सामने उनके हाल पर छोड़कर भाग निकला। यह समझ से परे है कि आखिर अमेरिका को ऐसी कौन-सी जल्दी थी जो अफगान समस्या का बिना कोई स्थायी हल निकाले बगैर और शांति की दिशा में कोई ठोस कदम उठाए बिना उसे अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा।
अमेरिका जो स्वयं को न केवल सुपर पावर समझता है बल्कि वैश्विक कूटनीति के केंद्र में स्वयं को स्थापित रुप में देखता है, से अफगान संकट के संदर्भ में इस अनुचित एवं अव्यवस्थित व्यवहार की कल्पना बिल्कुल भी नहीं की गई थी। वह अमेरिका जो भारत को समय-समय पर कश्मीर के विषय पर लोकतंत्र एवं मानवाधिकार के मुद्दे पर असहज करने का प्रयास करता रहता है, आखिर वह अपनी किस नीति के बल पर अफगानिस्तान की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का तख्तापलट मूकदर्शक मात्र बनकर देखता रहा।
जो बाइडेन की अफगान नीति के संदर्भ में पूर्व अमेरिकी रक्षा मंत्री की यह टिप्पणी जो उन्होंने 2014 में की थी, बिल्कुल सटीक साबित होती है कि “पिछले चार दशकों के दौरान विदेश नीति एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े प्रत्येक महत्वपूर्ण मसले पर बाइडेन का रूख बुरी तरह विफल साबित हुआ।” निस्संदेह यह सत्य है कि अमेरिका की अफगान नीति के परिणाम के पश्चात एक हद तक उसके सहयोगी एवं मित्र देशों में अमेरिकी भरोसे एवं विश्वास में कमी देखने को मिलेगी और यह ऐसे समय में अमेरिका को असहज करने में अधिक उपयोगी होगा जब विश्व राजनीति के पटल पर अमेरिका को कम्युनिस्ट चीन द्वारा प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न मुद्दों पर चुनौती प्रस्तुत की जा रही है।
अफगानिस्तान एक भू-आबद्ध देश है और मध्य एशिया से यूरोप तक भारत की आसान पहुंच सुनिश्चित करता है। अपनी इसी सोच को ध्यान में रखते हुए भारत ईरान में चाबहार पोर्ट का विकास कर रहा है, परन्तु पूर्व में ईरान पर अमेरिकी द्वारा लागू आर्थिक प्रतिबंधों और वर्तमान में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के पश्चात भारत की इस परियोजना के उद्देश्य पर संकट गहरा सकता है। भारत का अफगानिस्तान में हमेशा से प्रयास शांति को बढ़ावा देने का रहा है और भारत द्वारा अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं और मानवाधिकारों से जुड़े हितों को सुरक्षित करने पर मुख्य बल दिया गया है। परंतु तालिबानी शासन की स्थापना के साथ ही भारत की इन सभी प्राथमिकताओं को ठेस पहुंचने का खतरा बढ़ गया है और वर्ष 1996-2001 का तालिबान राज इस बात का गवाह है।
अपने पिछले शासन में तालिबान ने महिलाओं की शिक्षा एवं रोजगार पर पूर्ण प्रतिबंध लागू कर दिया था, क्योंकि तालिबान चरमपंथी गुटों का संगठन है जो इस्लामी शरीयत के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित करना पसंद करता है। तालिबान के लिए मानवाधिकार, नागरिक अधिकार, संविधान, अंतर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों की कोई अहमियत एवं उपयोगिता नहीं है। ऐसे में भारत के सामने यह एक जटिल स्थिति उत्पन्न हो गई है कि वह एक धार्मिक कट्टरवाद के शिकार आतंकी संगठन को किसी देश की सरकार के रूप में अपने सिद्धांतों एवं आचरण के विपरीत जाकर कैसे मान्यता प्रदान कर सकता है! एक ओर भारत जहां चीन और पाकिस्तान जैसे धूर्त पड़ोसी देशों से दोहरे मोर्चे पर जूझते हुए अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने में संलग्न है, वहीं अफगानिस्तान की अस्थिरता भारत के नीति नियंताओं के माथे पर चिंता की लकीरें खींचने का कार्य करेगी।
पाकिस्तान तालिबान को खुले तौर पर सहयोग करता है और पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बयानों से यह साफ जाहिर हो चुका है। पाकिस्तान तालिबान के साथ मिलकर भारत में अपनी आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा दे सकता है और इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव कश्मीर में दिखाई पड़ सकता है। पाकिस्तान अपने आतंकी संगठनों को अफगानिस्तान की भूमि पर स्थानांतरित करने की चाल भी चल सकता है। ऐसा करके वह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अपनी आतंकवाद मुक्त छवि पेश करने का प्रयास करेगा परन्तु पाकिस्तान की छवि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बुरी तरह धूमिल हो चुकी है और भारत के तीव्र प्रयासों से वह इस मंच पर अलग-थलग पड़ चुका है और फाइनेंशियल एक्शन टाक्स फोर्स की ग्रे लिस्ट में उसका नाम शामिल है और रेड लिस्ट में नाम शामिल होने का खतरा भी मंडरा रहा है।
इस सूची से बाहर आने के लिए वह आतंकवाद के विरुद्ध दिखावे की कार्रवाई करने में लगा है और इस सूची से बाहर निकलने के लिए वह अफगानिस्तान के मुद्दे को एक अवसर के तौर पर देख रहा है, परन्तु में विश्व समुदाय यह भली-भांति जान चुका है कि पाकिस्तान की कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर होता है। भारत साफ तौर पर यह स्पष्ट कर चुका है कि वह हिंसा द्वारा स्थापित सरकार को कोई मान्यता प्रदान नहीं करेगा। भारत द्वारा अफगानिस्तान में लगभग 3 अरब डॉलर की परियोजनाओं का विकास कार्य किया जा रहा है। भारत ने अफगानिस्तान की संसद का निर्माण किया है। इसके अलावा रेलवे, राजमार्ग, बांध, पावर प्लांट, स्कूल इत्यादि बुनियादी ढांचे का विकास किया जा रहा है।
वर्तमान में सरकार के तख्तापलट के पश्चात इन सभी परियोजनाओं के अधर में लटकने का संभावित खतरा बढ़ गया है। भारत का अफगानिस्तान के साथ व्यापार एवं वाणिज्य किस दिशा में आगे बढ़ेगा यह तो भविष्य ही तय करेगा क्योंकि पाकिस्तान तालिबान को अपने प्रभाव में लेकर भारत विरोधी भावना भड़काने और भारत से अफगानिस्तान के व्यापार पक्ष को खत्म करने का भरपूर प्रयास करेगा। गौरतलब है कि तालिबान द्वारा भारत की अफगानिस्तान में मानवीय सहायता एवं संरचनात्मक विकास कार्यों की प्रशंसा की गई है। इसके अलावा अगस्त, 2019 में भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद-370 एवं 35ए की समाप्ति पर भी तालिबान ने इसे भारत का आंतरिक मामला कहकर ख़ारिज कर दिया था।
तालिबान शासन की स्थापना के साथ ही अफगानिस्तान में उन सभी गतिविधियों पर पूरी तरह प्रतिबंध स्थापित हो जाएगा जिन्हें शरीयत कानून के अनुसार अनुमति प्रदान नहीं की गई है। ऐसे में अफगानिस्तान में पिछले दो दशकों में आधुनिकीकरण एवं पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप जो दूरगामी परिवर्तन देखने को मिले उन पर प्रतिबंध लागू हो जाएगा और अफगानिस्तान भौतिक एवं सांस्कृतिक विकास की दौड़ में विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत पीछे छूट जाएगा। कुछ स्थानों पर ऐसा देखने को मिला है कि तालिबान ने लड़कियों के स्कूलों को खोलने की मनाही कर दी है। ऐसे में अफगानिस्तान में हिजाब संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर मिलेगा और अफगानिस्तानी समाज तालिबान के हाथों की कठपुतली बन आधुनिकीकरण से मुंह मोड़ लेगा।
इन बदली हुई परिस्थितियों में भारत की अफगानिस्तान में क्या भूमिका होगी और क्या भारत अपने सिद्धांतों से विपरीत जाकर तालिबान को मान्यता प्रदान करेगा, यह प्रश्न भविष्य के गर्भ में मौजूद है। परंतु भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल न होकर और मानवाधिकारों की महत्ता को समझते हुए अफगानी जनता को स्वतंत्रता एवं न्यायपूर्ण नागरिक जीवन जीने का अवसर देते हुए और अंतर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों के अनुसार विदेशी मामलों का निपटारा करते हुए अगर तालिबान स्वयं को एक जनहितैषी सरकार के तौर पर प्रस्तुत करने में सफल रहा तो भारत को अपने कूटनीतिक द्वारा तालिबान के लिए खुले रखने चाहिए।
मोहित कुमार उपाध्याय
भारतीय राजनीति, संविधान और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार