पर्यावरण संरक्षण के प्रति चिंता प्रकट करते हुए महात्मा गांधी ने कहा हैं कि पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा कर सकती हैं परन्तु किसी भी एक व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती। यह विधि की विडंबना ही हैं कि आधुनिक समय में, प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ जीव की रचना के गुणों से भरपूर, मनुष्य भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के नियमों की अवहेलना करके एक बड़े स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है। प्रकृति के दुर्लभ संसाधनों के साथ की गई इस छेड़छाड़ का मानव को एक निश्चित समयावधि के अन्तर्गत प्राकृतिक आपदाओं के रूप में विभिन्न समस्याओं का सामना करना पडता है। जिसका हालिया उदाहरण कोरोना नामक महामारी के रूप में देखा जा सकता है।
इस वैश्विक महामारी से निपटने के लिए दुनिया के लगभग सभी देशों द्वारा समुचित इलाज के अभाव में लाॅकडाउन की व्यवस्था लागू करनी पड़ी जिससे यह सबक सीखा जा सकता हैं कि यदि मानव समय रहते प्राकृतिक नियमों एवं पारिस्थितिकी-तंत्र के साथ संतुलन बनाकर चलने में असफल रहा तो भविष्य में मानवीय जीवन के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण संरक्षण की तरफ ध्यान न दिए जाने के कारण भविष्य में विश्व को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता हैं। जैसे- सूखा, पीने योग्य पानी का अभाव, अतिवृष्टि, बाढ़, वैश्विक तापमन में वृद्धि, समुद्री जलस्तर का बढ़ना, ओजोन परत क्षरण इत्यादि।
इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत वैश्विक मंच पर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में गंभीरता से कदम बढ़ा रहा हैं परन्तु अन्य विकसित देश, जो सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वालों की श्रेणी में शामिल हैं, इस गंभीर समस्या के समाधान में कोई खास रुचि प्रदर्शित नहीं कर रहे है।
प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा 5 जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है ताकि बदलते परिवेश में विश्व समुदाय का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की तरफ खींचा जा सकें। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क आॅन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) द्वारा विश्व बिरादरी के साथ मिलकर पर्यावरण सम्मेलनों का आयोजन किया जाता हैं जिसमें जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर चर्चा का आयोजन किया जाता हैं और विकसित तथा औधोगिक दृष्टि से संपन्न राष्ट्रों से यह अपेक्षा की जाती हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भरपूर कदम उठाए जिससे संपूर्ण मानवता की रक्षा की जा सकें।
पर्यावरण संरक्षण के इसी उद्देश्य को लेकर दिसंबर, 2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में काॅप-21 के नाम से एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में हुए समझौते पर लगभग 195 देशों ने हस्ताक्षर किए जिसे पेरिस जलवायु समझौता के नाम से जाना गया। यह समझौता पर्यावरण संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन की दिशा में अभी तक उठाए गए सभी कदमों में से श्रेष्ठ था।
इस समझौते के अनुसार इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमन में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सदस्यों देशों के बीच आपसी सहमति बनी थी। दूसरी ओर कार्बन उत्सर्जन को एक बड़े स्तर पर कम करने के लिए सहमति बनी थी।
इसके अतिरिक्त विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों की मदद के लिए आर्थिक सहायता के रूप में 100 अरब डॉलर देने का प्रावधान किया गया था।
दुर्भाग्य की बात हैं कि अमेरिका ने इस समझौते से स्वयं को यह आरोप लगाते हुए अलग कर लिया हैं कि पेरिस समझौते के जरिये भारत और चीन को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही हैं। साथ में यह भी कहा कि इस समझौते का जलवायु परिवर्तन से कोई खास संबंध नहीं हैं जबकि तस्वीर इससे बिल्कुल अलग है।
विश्व के 4 बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों में चीन, अमेरिका, भारत और रूस की गिनती की जाती है। इससे जाहिर होता हैं कि चीन के विपरीत अमेरिका का भारत पर लगाया यह आरोप सही साबित होता दिखाई नहीं पड़ता है।
इसके विपरीत भारत ने अपना कार्बन उत्सर्जन 2005 के प्रति यूनिट जीडीपी उत्सर्जन के अनुपात में 30-35 फीसद कम करने का विश्वास दिलाया हैं जबकि भारत की जीडीपी चीन और अमेरिका की तुलना में काफी कम है। वहीं अपने वायदे के अनुसार भारत द्वारा कार्बन उत्सर्जन को कम करने के गंभीर प्रयास जारी है।
इससे स्पष्ट होता हैं कि विकसित देश पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर नहीं हैं और उनके द्वारा बड़ी मात्रा में किये गए कार्बन उत्सर्जन का अन्य विकासशील देशों को विभिन्न समस्याओं के रूप में नुकसान उठाना पड़ता है। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में पेरिस जलवायु समझौता एक सराहनीय कदम हैं और वैश्विक बिरादरी द्वारा इसे विकसित और विकासशील देशों की भागीदारी के शब्दजाल से बाहर निकालकर उचित रूप में कार्यान्वित किए जाने की आवश्यकता हैं ताकि भविष्य में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में बेहतर परिणाम प्राप्त किये जा सकें।
भारत तथा अन्य विकासशील देशों का यह मत हैं कि वे विकासशील राष्ट्र हैं तथा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों पर एक मानक तय नहीं किये जा सकते हैं जो कि एक सीमा तक उचित जान पड़ता हैं। उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति अपने पड़ोसी का कूड़ा-कचरा अपने घर के बाहर किसी भी परिस्थिति में देखना पसंद नहीं करेगा।
पर्यावरण में बढती ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा के कारण वैश्विक समस्या के रूप में ग्लोबल वॉर्मिंग का सामना करना पड़ रहा है।
औधोगिक कल कारखानों से निकलने वाली गैसें विशेष रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड और क्लोरो फ्लोरो कार्बन पृथ्वी के प्राणियों की रक्षक ओजोन परत को क्षत विक्षत कर रही है। वैज्ञानिकों ने इस विषय पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा हैं कि यदि समय रहते इसका ठोस उपाय नहीं किया गया तो पृथ्वी पर संपूर्ण जीवधारियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। वैज्ञानिकों के मतानुसार – ओजोन परत में अनेक स्थानों पर बड़े बड़े छिद्र हो गए हैं जो वातावरण को एक बडे स्तर पर नुकसान पहुंचा सकते है।
ओजोन परत में छिद्र के इस वैज्ञानिक तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता हैं। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में दावा किया गया हैं कि विश्वभर में लागू लाॅकडाउन के कारण सभी औधोगिक गतिविधियां एवं यातायात के सभी साधन एक निश्चित अवधि के लिए बंद हो जाने के कारण आने वाले समय में ओजोन परत अपनी पूर्व स्थिति में दिखाई पड़ सकती है।
इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता हैं कि ओजोन परत में छिद्र के लिए उत्तरदायी कारक क्या है।
उल्लेखनीय हैं कि ओजोन परत के कारण ही पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी जीवधारी सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणों से बच पाते है। मानवीय गतिविधियों के कारण यदि ओजोन परत को कोई क्षति पहुंचाती हैं तो पृथ्वी पर सहज रूप में जीवन की कल्पना करना नामुमकिन होगा।
वैज्ञानिकों का मत हैं कि पिछली सदी में विश्व के तापमान में 6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों तथा पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी हैं कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी दर से जारी रहा तो 21वीं सदी के अन्त तक पृथ्वी के तापमान में 3.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाने की सम्भावना है।
पर्यावरणविदों का मत हैं कि इस ताप वृद्धि के परिणामस्वरूप ग्रीनलैण्ड तथा आर्कटिक सागर की बर्फ़ पिघलनी आरंभ हो जाएगी, परिणामस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ जाएगा।
वैज्ञानिकों ने यह भी संकेत दिया हैं कि पृथ्वी के वातावरण में गर्मी बढने से वर्ष 2025 तक जलस्तर में 200 सेन्टीमीटर तक वृद्धि हो जाएगी। इस कारण समुद्र के किनारे बसे छोटे टापू व देश सदैव के लिए जल में डूब जाएंगे।
ग्लोबल वॉर्मिंग के परिणामस्वरूप वर्ष 2050 तक समुद्र का जलस्तर बढ़ने से बांग्लादेश का 17 प्रतिशत भाग जल में डूब जाएगा तथा 30 लाख व्यक्ति बेघर हो जाएंगे। ऐसा अनुमान हैं कि मुम्बई, चेन्नई तथा कोलकाता भी समुद्री जल में समा सकते है।
ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण हिमालय में आच्छादित ग्लेशियरों के पिघलने के कारण भविष्य में नदियों के सूखने की संभावना भी बन सकती है। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पर्यावरण में बाढ़ तथा सूखा दोनों की संभावना बन सकती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियरों का आकार पहले से ही लगातार घटता जा रहा है। अनुमानित तौर पर यह बात भी सामने आ रही हैं कि हिमालयी नदियों में पहले की तुलना में अब लगभग 10 प्रतिशत पानी घट गया है।
ग्लोबल वॉर्मिंग का ही परिणाम हैं कि विगत 100 वर्षों के दौरान पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में समुद्र के जलस्तर में 0.5 सेन्टीमीटर की वृद्धि हो रही है। वैज्ञानिकों तथा पर्यावरणविदों ने बिगड़ते पर्यावरण संतुलन के प्रति चिंता व्यक्त की हैं तथा पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया है।
वैज्ञानिकों की यह भविष्यवाणी उचित प्रतीत होती हैं कि यदि समय रहते इस विकराल समस्या पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया तो भविष्य में संपूर्ण मानवता का अकाल, बाढ़, भूकंपों तथा वायु चक्रवातों की चपेट में आकर अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
-मोहित कुमार उपाध्याय