स्वतंत्रता प्रकृति के द्वारा दिया गया उत्तम अधिकार है, जो हमें समुन्नत करता है। स्वतंत्रता किसी भी समाज, उसकी परंपरा और संस्कृति, उस समाज के व्यक्ति विशेष के आचार विचार और उसमें व्याप्त नैतिकता की परस्पर विरोधी नहीं बल्कि उसमें निहित उसकी शक्ति है।
जैसे आज़ादी की प्रतीक उन्मुक्त आकाश में उड़ती पतंग कितनी स्वतंत्रता से विचरण करती रहती है। लेकिन कभी सोचा है कि उसकी आजादी भरी उड़ान उसकी डोर से बंधी होती है, व्यवस्थित होती है। डोर का साथ छूटते ही पतंग कट जाती है, फिर न तो उसकी उड़ान रहती है न ही उसका वज़ूद।
सामान्य रूप से इच्छा अनुसार कार्य करने की छूट ही स्वतंत्रता कहलाती है, लेकिन इसे स्वच्छंदता कहना ज्यादा उचित होगा। क्योंकि स्वच्छंदता अपनी सभी व्यवस्थाओं का उलंघन करता है, क्योंकि इसमें अपने तंत्र या अपनी व्यवस्था का अभाव होता है। वहीं स्वतंत्रता का मतलब होता है व्यवस्थित रूप से कार्य करने की प्रवृत्ति।
प्रतिबंधों का लोप होना स्वतंत्रता का मात्र एक पहलू है, इसकी विशेषता नहीं। जबकि स्वतंत्रता हमारे विकल्प चुनने के सामर्थ्य और क्षमताओं से प्राप्त की गई एक सुखद अवस्था है। कोई भी व्यक्ति अपने हितों की रक्षा कम से कम प्रतिबंधों के बीच ही करने में समर्थ हो पाता है। और तभी वह अपनी बुद्धि विवेक से निर्णय की शक्ति का प्रयोग कर पाता है।
हमारी प्रकृति अपने आप में एक बहुत बड़ी व्यवस्था है। इस पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीव जंतु और पादप वनस्पति इसके अंग हैं और ये सभी अपनी अपनी उप व्यवस्था के साथ संचालित हो रहे हैं। यहां सभी स्वतंत्र हैं।
इन सबके लिए स्व अनुशासन में रहते हुए अपना कर्तव्य करना इनकी आत्मशक्ति की वृद्धि करता है। आत्मशक्ति से व्यवस्थित रहने की कला अनुशासन कहलाती है। यानी अनुशासन में स्वयं का नियंत्रण होता है किसी और के द्वारा नियंत्रित नहीं होता है व्यक्ति। यही व्यवस्था इन्हें स्वतंत्र रखती है, परतंत्र नहीं।
सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली