अल्हड़ सी छिपती झाँकती बच्ची माथे पर गोदना सजाए दिखे तो उसके बैगा होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। बैगा जनजाति में आठ से नौ बरस मि उम्र पाते ही लड़कियों के माथे पर ‘विक्ट्री मार्क’ (अंग्रेजी के ‘v’ आकार का ) सज जाता है। साथ में कुछ बिन्दियां और खड़ी-पड़ी रेखाएँ भी शामिल होती हैं। परिवेशगत भिन्नता और अपरिचय की झिझक के बावजूद हमारा कौतूहल और उसका जनजातीय अस्मिता का दर्प एक दूसरे का हाथ थामने का सिरा दूंढ ही लेते हैं। ठहर ठहर कर होने वाले संवाद में ये बात उभर कर आती है कि उसने सुन्दर दिखने के लिए माथे पर टीका बनवाया है। बालसुलभ सुन्दर दिखने की अभिलाषा से दीप्त उस चेहरे ने बैगा जनजाति में हमारी उत्सुकता बढ़ा दी। कोशिश करने पर प्राथमिक स्तर की जानकारी हासिल हुई।
बैगाओं को जनजातियों में भी प्राचीनतम का दर्जा हासिल है। मूल रूप से यह मध्यप्रदेश में निवास करने वाली जनजाति है। मध्य प्रदेश का मंडला और बालाघाट क्षेत्र इनका मुख्य निवास स्थान है। मध्य प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी इन्हें देखा जा सकता है। परम्परागत रूप से झूम खेती पर निर्वाह करने वाली यह जनजाति हल जोतने से गुरेज करती है। बैगा मानते हैं कि हल जोतना धरती माँ के सीने पर खरोंच मारना है। जोतने की प्रक्रिया से धरती माँ को तकलीफ पहुँचती है। दूसरे वे ये भी मानते हैं कि जमीन के एक ही टुकड़े से बार-बार अनाज नहीं मांगा जा सकता है। इसलिए ये लोग झूम खेती के हिमायती है। परंपरागत रूप से ये इसी तकनीक से अनाज पैदा करते रहे हैं। खेती के अपने तरीके को बैगा जनजाति बेबर या दहिया (slash & burn) कह कर संबोधित करती है।
बहरहाल हमारी उत्सुकता और रुचि उनकी गोदना कला में थी। पता चला कि बैगा स्त्रियां गोदना बनावाने की खासी शौकीन होती हैं। आम धारणा है कि गोदना उन्हें आकर्षक बनाकर उनकी खूबसूरती में इजाफा करता है। स्त्रियां अपने माथे, गले, छाती, हाथ-पैर, पीठ लगभग सभी अंगों पर विस्तृत गोदना गुदवाती हैं। ख़ास बात ये है कि अन्य जनजातियों की तरह बैगा समाज की बुजुर्ग स्त्रियां युवाओं के शरीर पर गोदना बनाने की जिम्मेदारी नहीं उठती हैं। बैगाओं में आपस में गोदना बनाने का चलन नहीं है। गोदने के लिए यह जनजाति बदना और ओझा जाति की स्त्रियों पर निर्भर है। बदना स्त्रियां पेशागत रूप से इस काम को करती हैं और गोदनाहरिन कहलाती हैं।
गोदने से जुड़े बैगा स्त्रियों के आस्था और विश्वास में तमाम तरह की बातें शामिल हैं। बैगा स्त्री और पुरूष, दोनों मानते हैं कि गोदना स्त्री के आकर्षण और सौंदर्य को बढ़ाता है। उनके समाज में विपरीतलिंगी आकर्षण के महत्वपूर्ण माध्यम और सेक्सुअल स्टिम्युलेन्ट के रूप में गोदना रूढ़ है। आकर्षक बनाने के अलावा गोदना उन्हें बुरी नज़र से बचाता है , तमाम बीमारियों से निजात दिलवाता है। गोदने को स्त्रियां वह अनमोल थाती मानती हैं जो न उनसे छीनी जा सकती है और न ही असावधानी वश उनसे खो सकती है।
बैगा जनजाति ने जीवनपर्यंत उन्हें आकर्षक, स्वस्थ-सुन्दर और सुखी बनानें वाले गोदने की मृत्योपरांत उपयोगिता भी ढूंढ रखी है। बैगा स्त्रियां अपनी पीठ एक विशेष प्रकार का गोदना बनवाती हैं। इसे ढंढा/धंधा( dhandha) कहा गया है। इसमें छः बिन्दु रैखिक रूप से जुड़े रहते हैं। मान्यता है कि ये चिन्ह मृतक की आत्मा को नये शरीर में पुनर्स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बैगाओं में गोदने को कुछ बीमारियों से निजात दिलाने की भी मान्यता है। बैगा स्त्रियाँ ये मानती है कि गोदना उन्हें रक्त सम्बन्धी अनियमिताओं से बचाता है , जहर के दुष्प्रभाव को कम करता है, बदलते मौसम की मार, पेट के रोगों और गठिया से सुरक्षित रखता है ।
बैगा स्त्रियों में आठ बरस की उम्र से शुरू होकर गोदना गुदवाने की प्रक्रिया उम्रपर्यन्त चलती रहती है। शुरुआत माथे से होती है। जैसे ही लड़की बचपन को पीछे छोड़ किशोर वय की तरफ कदम बढ़ती है उसके माथे पर गोदना करवाया जाता है। यह उसके वयस्क जीवन की तरफ बढ़ने वाले कदमों के प्रति उल्लास और उत्सव का सांकेतिक प्रतीक है। आमतौर पर माथे का गुदना 8 से 10 वर्ष की आयु वय के बीच किया जाता है। ब्याह की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते लड़कियों के हाथ और पैर गुदने से भर जाते हैं। जांघो पर पति की इच्छानुरूप ब्याह के बाद गोदना बनवाने की परंपरा है। गले और छाती (विशेष रूप से स्तन) का गोदना मातृत्व का संकेतक है। बच्चे के जन्म के बाद इन अंगों को गोदने की प्रथा है।
स्त्रियों की तुलना में बैगा पुरुषों में गोदने का प्रचलन कम है। हालांकि आज से लगभग सौ बरस पहले मंडला क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों दोनों में गोदना पर्याप्त मात्रा में पाया जाता था। बैगा पुरुष अपने हाथ पर चंद्रमा जैसी आकृति गुदवाते हैं। बाँह पर बिच्छू बनवाने का चलन है। शरीर के उन हिस्सों को भी गुदवाया जाता है जो गठिया की पीड़ा से गुजरते हैं। गुदने की प्रक्रिया में चुभाई जाने वाली सुइयाँ इस बीमारी में आराम पहुँचती हैं। गोदना गुदवाती हुई लड़की या स्त्री को देखना बैगा पुरुषों के लिए वर्जित है। बैगा जनजाति के लोग ऐसा मानते हैं कि अगर कोई पुरूष या लड़का गुदना रचते देख लेता है तो वह सांभर का शिकार नहीं कर पाता है।
गोदने की प्रक्रिया एक पवित्र धार्मिक अभिचार की तरह पूरी की जाती है। बैगा पुरुष अपनी स्त्रियों के गोदने को अचल श्रृंगार मानते हैं जो उन्हें यौनिक रूप से आकर्षक बनाने के साथ साथ समाज में सुख शांति और समृद्धि लाता है। मृत्यु के बाद स्वर्ग में यही गोदना बैगाओं को उनकी पहचान देते हैं। उनके समाज में मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति बिना गोदना गुदवाए मर जाता है तो स्वर्ग में ईश्वर लोहे की छड़ से उसके शरीर को गोदते है। छड़ से गोदना बनवाने की प्रकिया को काफी तकलीफदेह बताया गया है। इस वजह से जनजातीय पहचान और अस्मिता के प्रतीक के रूप में बैगा पुरूष अपनी स्त्रियों के गोदने को संजीदगी से लेते हैं और उससे जुड़ी आस्थाओं और विश्वास का गम्भीरता से पालन करते हैं।
बरसात का मौसम छोड़कर अन्य सभी महीनों में गोदना गुदवाया जा सकता है। बरसात का मौसम बराने की एकमात्र वजह संक्रमण है। बरसात में आद्रता की वजह से संक्रमण की संभावना अधिक होती है। गोदना बनाने के लिए परंपरागत रूप से बबूल का कांटा इस्तेमाल में लाया जाता था। आजकल काँटे की जगह सुइयाँ इस्तेमाल होती हैं। रंग के लिए भिलवां का रस, मालवन के पेड़ का रस, काला तिल और रमतिला के तेल का मिश्रण, काजल, डोमी साँप (किंग कोबरा) की खाल की राख को एक साथ तेल में मिलाकर घोल तैयार करते हैं। काँटे या सुई से त्वचा को बार-बार छेदकर उसमें डिजाइन के अनुरूप रंग भरा जाता है। सुई की चुभन से होने वाले दर्द से बचने का कोई उपाय नहीं किया जाता। किसी दर्द निवारक या औषधि का इस्तेमाल बैगा नहीं करते हैं। दर्द सहना स्त्रियोचित सहनशीलता का प्रतीक माना जाता है जो उन्हें भविष्य में होने वाली तकलीफों को बर्दाश्त करना सिखाता है। गोदना पूरा करने के बाद उसे गोबर और सुपारी के पानी से धुला जाता है। सुपारी का पानी त्वचा की सूजन कम करता है। सात आठ दिन में सूजन खत्म होने के साथ गोदना त्वचा में स्थायी रूप से रच जाता है। गोदना गुदवाने के बाद पूरे दो दिन स्त्री को सबसे अलग थलग एकांत में रहना होता है। इस दौरान उसके शरीर पर हल्दी और तेल का लेप लगा कर विश्राम करती है। दो दिन बाद स्नान करवाकर उसे वापस रोजमर्रा के जीवन में शामिल कर लिया जाता है।
चित्रांकन अंग विशेष के हिसाब से पूर्व निर्धारित होता है। माथे पर अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर जैसा चिन्ह बनाया जाता है। साथ मे कुछ बिंदु और खड़ी पड़ी रेखाएँ होती हैं। माथे के गोदने को बैगा अस्मिता से जोड़ कर देखा जाता है। छाती पर मोर और दौरी का चिन्ह गोदते हैं। घुटने पर का गुदना फूल जैसी आकृति रखता है और फुलिया कहलाता है। हाथ के पिछले हिस्से पर बने चिह्न झोपड़ी/झोफरी कहलाते हैं। जांघो पर पलानी और कजेरी का अंकन होता है। इन्हें लकीरों और बिंदुओं के समुच्चय से बनाया जाता है। पीठ पर मानवाकृति, मक्खी, ढंढा और सकरी; पैरों पर मछली का कंकाल और चकमक ख़ासतौर पर बनते हैं।
गोदना पूरा किये बगैर बीच में उठना या अधूरा छोड़ देना वर्जित है। गोदना पूरा होने पर गोदनाहरिन को महोल के पत्ते में लपेटकर हल्दी की गांठ, नमक मिर्च और सिक्का बतौर शगुन दिया जाता है। इन वस्तुओं को सूप में रखकर देने की परंपरा है। उनका श्रम मूल्य अलग से दिया जाता है। 1990 के दशक में तमाम परिश्रम करके पूरे शरीर मे गोदना बनाने का मूल्य मात्र सौ रुपये था। 1930 में जब आना का चलन था यह काम तीस आना की कीमत में सम्पन्न हो जाता था। बदलते हुए समय में अब गोदनाहरिन बाजार, हाट और मेलों में गोदना बनाते हुए देखी जा सकती हैं।
बैगा जनजाति की गोदने से जुड़ी भावना को अंधियारी बाई के कथन में महसूस किया जा सकता है। इस कथन की जानकारी शिवकुमार जी के माध्यम से हुई। अंधियारी बाई अस्सी बरस की बैगा महिला है, जिनका कहना है- “नाई गुदाइस त भगवान मरत समय साबड़ से गोदही, असी मोर आजा कहन रहे। दना रुपया पैसा सब छूट जत्थे, मरत समय ये ही गुदना साथ जाथ है, अरु कुच्चु नाहीं जात। यह चिन्हा जात हे गोर संगमा, नई त सन की सुतरी साथ नही जाव”।
इसका अर्थ है- यदि गुदना नहीं किया गया तो भगवान मरते समय सब्बल से गोदेंगे, ऐसा मेरी आजी कहती थी, रुपया पैसा सब यह छूट जायेगा, यही चिन्ह हमारे साथ रहते है, वर्ना जलाते समय या गाड़ते समय तन पर सन की एक सुतली तक नहीं रहने दिया जाता। परम्परा से गोदना बैगा स्त्रियों की अनमोल थाती है, जिससे उनका लगाव भावनात्मक है।