भारतीय संविधान के शिल्पकार डाॅ भीमराव रामजी अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा में मसौदा समिति के अध्यक्ष की हैसियत से संविधान के मसौदे पर हुए वाद विवाद का उत्तर देते हुए कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमता का। राजनीति में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिद्धान्त को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धान्त का हम खंडन करते रहेंगे। इन विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन को हम कब तक बिताते चले जाएंगे ? यदि हम इसका बहुत काल तक खंडन करते रहेंगे तो हम अपने राजनीतिक लोकतन्त्र को संकट में डाल देंगे। हमें इस विरोध को यथासंभव शीघ्र ही मिटा देना चाहिए, अन्यथा जो असमता से पीड़ित हैं, वे लोग इस राजनीतिक लोकतन्त्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे, जिसका निर्माण इस सभा ने इतने परिश्रम के साथ किया है।
डॉ अंबेडकर ने जिस सामाजिक और आर्थिक असमानता के प्रति चिंता प्रकट करते हुए उसे शीघ्र ही दूर करने की बात की थी, संविधान के लागू होने के सत्तर वर्ष पश्चात् भी हम उस असमानता को दूर करने में पूरी तरह विफल साबित हुए और आर्थिक असमानता की यह खाईं लगातार विकराल रूप धारण करती हुए बढ़ती जा रही हैं जिसका ताजा उदाहरण है – लाॅकडाउन के कारण यातायात के सभी साधनों के बंद हो जाने की वजह से प्रवासी श्रमिकों का पैदल अपने मूल स्थान की ओर बढ़ना।
इस घटना को पलायन के रूप में देखा भी जा रहा हैं लेकिन इसे पलायन कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इन श्रमिकों का पलायन तो तब हुआ था जब ये काम धंधे की तलाश में अपना घर बार छोड़कर एक बेहतर जीवन की आशा लेकर शहर आए थे।
भारत ने जिस लोकतन्त्रात्मक संसदीय प्रणाली को राज्यावस्था के रूप में अपनाया हैं उसकी मूलभूत बुनियाद कल्याणकारी राज्य पर टिकी हुई है और किसी भी कल्याणकारी राज्य का एकमात्र उद्देश्य होता हैं, अपने लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करना। लेकिन आर्थिक सुरक्षा के अभाव में एवं सभी संभावित रास्ते बंद हो जाने पर पत्नी, छोटे बालक, चल फिर सकने में असक्षम बूढ़े माता-पिता को लेकर पैदल घर लौटते प्रवासी श्रमिकों की हाल ही की अमानवीय तस्वीरें भारत के कल्याणकारी राज्य होने पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।
निःसंदेस यह बात सत्य हैं कि वैश्विक महामारी कोरोना से निपटने में बचाव के रूप में लाॅकडाउन एकमात्र उपाय हैं और महामारी की गंभीरता को समझते हुए प्रधानमंत्री ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उचित समय पर यह कदम उठाया ताकि संक्रमण को व्यापक स्तर पर फैलने से रोका जा सकें। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले प्रवासी श्रमिक वर्ग को केन्द्र और राज्य सरकारें आर्थिक सुरक्षा देने में पूरी तरह विफल साबित हुई जिसका परिणाम यह निकला कि सरकारी और प्रशासनिक उदासीनता का शिकार हुए इस वर्ग ने अपने घर लौट जाना ही उचित समझा।
नीति आयोग के आकलन के अनुसार भारत में कार्यशील लोगों की आबादी लगभग 50 करोड़ हैं जिसमें से 93 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए है और इस असंगठित क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा एवं झारखंड जैसे राज्यों के लोग बहुतायत में है। वहीं लाॅकडाउन के इस दौर में घर लौटने वाले श्रमिकों में इन्हीं राज्यों के श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है।
लाॅकडाउन की घोषणा के समय सरकार द्वारा इस वर्ग को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक दिशा-निर्देश जारी किए जाने की आवश्यकता थी ताकि श्रमिक वर्ग को किसी भी प्रकार की संभावित समस्या से छुटकारा दिलाया जा सकें लेकिन ऐसा कोई सरकारी उपक्रम केन्द्र और राज्य स्तर पर नहीं किया गया और सरकार एवं प्रशासनिक तंत्र की घोर उपेक्षा के कारण श्रमिकों को अपने मूल स्थान की ओर बढ़ने पर मजबूर होना पड़ा। इन प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा का एक बड़ा कारण है – केन्द्र और राज्य सरकार के पास पर्याप्त आंकड़ों का अभाव।
अगर सरकारों के पास इन सभी प्रवासी श्रमिकों का आंकड़ा उपलब्ध होता तो संकट के इस समय में उनकी दैनिक जीवन से जुड़ी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता था जिससे प्रवासी श्रमिकों को घर लौटने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि श्रमिकों के अपने मूल स्थान लौटने के इस ढंग से व्यापक स्तर पर संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ गया है लेकिन इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें बराबर की हिस्सेदार है।
श्रमिकों के पलायन से जुड़ी इस समस्या का त्वरित संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार ने स्पेशल श्रमिक ट्रेन चलाने का फैसला किया लेकिन श्रमिकों की बेहतरी के लिए केंद्र सरकार का यह सराहनीय कदम भी राज्य सरकारों के राजनीतिक ड्रामे का शिकार हो गया।
अनेक राज्यों का यह मानना हैं कि इन प्रवासी श्रमिकों को वापिस बुलाने पर उनके राज्य में संक्रमण का स्तर तेजी से बढ़ जाएगा। राज्य सरकारों की यह सोच प्रधानमंत्री की कोरोना महामारी से बचाव में की गई अपील “आॅनली सोशल डिस्टेन्स, नाॅट इमोशनल आॅर ह्यूमन डिस्टेन्स” का खुलेआम उल्लघंन दिखाई पड़ता है।
जिन राज्यों से इन श्रमिकों ने पलायन किया वहां के उधोग धंधों के सम्मुख लाॅकडाउन के पश्चात् कामगारों का संकट खड़ा हो जाएगा जिससे इन उधोगों के उत्पादन स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और यह कदम आत्मनिर्भर भारत के अभियान में बाधक बनेगा। दूसरी ओर इन श्रमिकों के सम्मुख अपने मूल स्थान पर रोजगार का संकट खड़ा हो जाएगा।
इसके दो संभावित नकारात्मक परिणाम देखे जा सकते हैं – पहला, कम उत्पादन के कारण उपभोग का स्तर कम रहेगा जिससे आर्थिक वृद्धि दर के कम होने का अनुमान बढ़ जाएगा। दूसरा, महामारी से पहले ही बढ़ती बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे देश के सम्मुख इन श्रमिकों को अपने मूल स्थान पर रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। इससे सरकारों के सम्मुख एक व्यापक स्तर पर बढ़ती बेरोजगारी का संकट खड़ा हो जाएगा।
श्रमिकों की इस दुर्दशा को देखकर यह स्पष्ट होता हैं कि स्वतंत्रता के पश्चात श्रमिकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए भारतीय राजनीति के पुरोधाओं ने इस वर्ग को संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित राजनीतिक समता तो प्रदान कर दीं, लेकिन इनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए संविधान निर्माताओं ने जिस सामाजिक और आर्थिक समता को प्रदान करने की जिम्मेदारी इन कल्याणकारी सरकारों को सौंप दी, समाज के निम्न वर्ग को उस समता को प्रदान करने में यह पूरी तरह विफल साबित हुए।
निःसंदेह नोवल कोविड-19 नामक महामारी एक निश्चित समय के पश्चात् समाप्त हो जाएगी परन्तु इस महामारी ने केन्द्र और राज्य सरकारों की प्रवासी श्रमिकों के संदर्भ में जिस घोर उदासीनता का परिचय दिया वह मानवता को शर्मसार कर देने वाली है। इसकी छाप श्रमिकों के मन पर एक लंबे समय तक देखी जा सकती है।
वहीं केंद्र और राज्यों को मिलकर रोजगार और आर्थिक गतिविधियों को ठीक दिशा में संचालित करने के लिए सुनियोजित रणनीति के साथ मिलकर आगे बढ़ने की आवश्यकता हैं ताकि देश को फिर से पटरी पर लाया जा सके।
-मोहित कुमार उपाध्याय