सांझ ढले जब रात नशीली लेती होगी अंगड़ाई
और भी ज्यादा तन्हा होकर रोती होगी तन्हाई
जितना जितना तुम बदलोगे उतना ही हम बदलेंगे
या तो हमको शीशा समझो या तो अपनी परछाई
पानी जैसा अपना जीवन बह जाते मन-भावों में
जैसे सांचे में रख दोगे वैसी होगी ढलवाई
हमने खुद को किया हवाले हमसे मत उम्मीद करो
अब बस तुम पर ही ठहरी है इस रिश्ते की गहराई
लोग यहां छिप छिप कर हमको कहते पागल आवारा
रब ही जाने कितनी होगी इन बातों में सच्चाई
यूं तो अपने स्वप्नों का दम हमने खुद ही घोंटा है
फिर भी वो सब जी उठते हैं जब चलती है पुरवाई
दुनिया वाले जो मन आए वैसा रंग दिखाते हैं
एक ज़रा सा इश्क़ हुआ गर कर देते हैं रुसवाई
एक तरफ तो कहते हैं वो जैसे हो वैसे रहना
और कभी वो ही कह उठते क्या है तुम में अच्छाई
माना आज घना अँधियारा असमंजस के बादल हैं
भोर भी होगी फूल खिलेंगे महक उठेगी अँगनाई
-अंकिता कुलश्रेष्ठ