कब मासूमियत पे उसकी
पड़ जाएंगी
दर्दो-शिक़न की सलवटें
वक़्त से ही पहले
ये तो शायद
उसको भी
मालुम नहीं था
बेफ़िक्री के आलम में
गुज़रा था
बचपन उसका
और बरह्ना-पा लिए
वो यूँ ही
घर से निकल पड़ा था
बिख़रे पड़े थे राह में
नफ़रतों के कंकर
और सियासतों के नश्तर
अब हर एक नक़्शे-पा उसका
इंकलाबी होकर
लामहदूद था
क्या जानता था
कि फ़सादों के शहर में
सुकूँ का कोई एक कालीन
बिछा पड़ा था?
थकन थी सदियों की
दश्तो-सहरा में भटकने की
और एक टुकड़ा छाँव
कहीं नहीं था
मिलता भी आख़िर कैसे
कोई शजर मुहब्बतों का
उगा भी तो नहीं था
वो एक शख़्स
जो मुद्दतों हुई
सोया नहीं था
और भीगे दामन का
जब हमको इल्म हुआ
तो याद आया कि
रात उसका माज़ी
क्या हमसे लिपट के
रोया नहीं था!
-सुरजीत ‘तरुणा’