कोई सामान नही थी मैं
जीती जागती इंसान थी
फिर भी उतार फेंका था मुझे
एक बोझ की तरह
और कर लिया था
तान के अपना कांधा सीधा
कि कभी दुलार से मैं
अपनी बाँहे भी नहीं डाल सकी
तुम्हारे गले में
याद भी नहीं मुझको
तुमने क्या दिया था
और क्या नहीं दिया था मुझे
हाँ दिया था तो बस
भर मन कड़वाहट
जो वक्त के साथ कम तो हुआ
पर अपनी जगह पर
आज भी बाकी है
फिर भी मन से
मिटा नही पाई तुम्हें
आज भी तीज-त्योहारों पे
तुम याद आ ही जाते हो
पर कभी आवाज नही दे पाई तुम्हें
यों लगता है सम्बन्ध रहते हुए भी
सम्बोधनविहीन हो गए हो तुम
अब तुम्हें अपना कहकर
बुलाने के लिए कोई लफ्ज
नही बचा मेरे पास
ख्याल अब भी आता है तुम्हारा
पर मैं वैसे ही झटक देती हूँ
जैसे तुमने उतार फेंका था मुझे
-रुचि शाही