लो वसन्त आ गया, धरा भर उठी रसिक अनुभाव में
मौसम नाचे, ख़ुशबू बाँधे पाँव में
मन के पंख खुले हौले से
ऊँची भरे उड़ानें
जड़-चेतन रच गया रँगा-रँग
रोम-रोम हुलसाने
खिरका चलें हवायें, गोरी थिरके आँगन गाँव में
दिवस गुनगुने, रातें गुनगुन
औगुन करती चाँदनी
लगन पिया की चौगुन व्यापे
समझ न पाये मानिनी
हाव-भाव, चितवन, ठनगन, तन-मन भर उठे उछाव में
टेसू फूले डार-डार, वन-
बैरागी बाना धारे
भीतर उमगे, रास-रंग
बाहर भगवा की बौछारें
तन-मन भीगा-भीगा, संयम हर पल लागा दाँव में
-रामरज फ़ौज़दार फ़ौज़ी