कोरे कागज पे अचानक खिलखिलाते हाशिये
जब भी अपने हक की खातिर जाग जाते हाशिये
हम महल में भी हमेशा दर्द में डूबे रहे
किन्तु कुटिया में भी अक्सर गुनगुनाते हाशिये
हौसले की चोट से वो पत्थरों को तोड़ दें
ठान लें तो फिर सितारे तोड़ लाते हाशिये
खलबली-सी मचने लगती है सियासी गाँव में
हाथ दो-दो वक्त के जब आजमाते हाशिये
छोड़कर हर-इक जरूरी काम आ जाते है वो
जब इलेक्शन के दिनों में घर बुलाते हाशिये
-डॉ भावना
मुजफ्फरपुर