दुख भरी क्यों ज़िन्दगी, क्यों हो रहा नैतिक पतन।
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
प्रीत की क्यों पावनी, बहती नहीं निर्मल नदी
नेकियाँ क्यों त्याग कर, अपना रहे हैं सब बदी
क्यों स्वयं का आज हम, करते नहीं हैं आँकलन
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
वेदनाएं बढ़ रहीं, संवेदनाएँ लुप्त हैं
भावनाएँ रो रहीं, सब वर्जनाएं सुप्त हैं
क्यों अहम में घूमता, इंसान ख़ुद में ही मगन
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
है सियासतदान बहरा, बात किससे हम करें
और मुंसिफ भी बिका, हम देख आँखें नम करें
किसलिए हक़ के हमारे, हो रहा है नित हनन
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
हो गयी है सोच दूषित, मर रही इंसानियत
घन घिरें ग़म के घनेरे,बढ़ रही हैवानियत
हो दुखों का अंत मोहन, कुछ बता दो अब जतन
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
क्या विरासत में मिला था?सौंप कर क्या जाएंगे
क्या भला कर्तव्य से हम, मुक्त भी हो पाएंगे
कर रहे क्यों नीर खारे का, सभी हम संचयन
हैं यही मन की व्यथाएँ, है यही चिंतन मनन
– स्नेहलता नीर