स्वार्थ में आज हमारा जमीर खो गया है।
नाम जिंदा है यहाँ पर पहचान खो गई है।।
ललक है अब बस मंच और कुर्सी की,
गले में माला और सर पे टोपी मिल गई है।
स्वार्थ में आज हमारी जाति,
धर्म, मजहब और ईमान खो गया है।।
सत्ता की भूख,
आपसी भेदभाव और लड़ाई का शिकार हो गया है।
टुकड़ों में बँटें और सिमट कर खण्डित हो गए
स्वार्थ में आज हमारा जमीर खो गया है।।
खुली आँखों से एक ख्वाब देखा,
एक सच्चे समाज का उदय हो रहा है।
आशा की किरण धूमिल पड़ गयी,
दामन बदल गया है।
स्वार्थ में आज हमारा जमीर खो गया है।।
शानो-शौकत, बंग्ला-गाड़ी,
आलीशन महल हो गया है।
आजाद होकर भी गुलाम हैं,
तलाश खो गई है। स्वार्थ में आज हमारा जमीर खो गया है।।
मोमबत्तियाँ कुछ देर जलकर बुझ गयी,
मानवीयता खो गई है।
वस्त्रहीन आज और भी नग्न हो गया है।
स्वार्थ में आज हमारा जमीर खो गया है।।
-संत कुमार
(सौजन्य साहित्य किरण मंच)