पूर्वी चंपारण (हि.स.)। कृषि प्रधान देश भारत के खेतो में लगातार बढ़ रहे रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक के प्रयोग से न केवल जमीन की गुणवत्ता घट रही है, बल्कि इसके दुष्प्रभावों ने मानव जीवन से लेकर पशु, पक्षी, जलस्रोत सहित समूचा पर्यावरणीय चक्र असुरक्षित होता जा रहा है। अत्यधिक कृषि उत्पाद पाने की लालच में खेतो में अनुचित मात्रा रसायनों व कीटनाशको के प्रयोग ने पूरे मानवीय जीवन के लिए गंभीर संकट पैदा करता दिख रहा है।
एक ओर जहां दुनिया के कई देशों ने रसायनिक उर्वरक के उत्पादन को प्रतिबंधित कर दिया है। वही भारत में लगातार रसायनिक उर्वरको व कीटनाशक की मांग और उत्पादन में बढोत्तरी दर्ज की जा रही है।एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रतिदिन औसतन एक भारतीय 0.27 मिलीग्राम रसायन व कीटनाशक सब्जी, अनाज, फल, दूध एवं पानी के माध्यम से पेट में ग्रहण कर रहा है। जिससे देश में ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, दमा, साइनस, हृदय रोग, थायरॉइड, एलर्जी, अंधापन एवं कैंसर जैसे गंभीर बीमारी मानव शरीर में बढ़ रहा है।
कृषि जानकार बताते है कि प्रकृति ने खेती के लिए बहुत कुछ दिया है। चार पांच दशक पूर्व किसान प्राकृतिक व्यवस्था से ही खेती करते थे। तब गंभीर बीमारी से लोग कम ग्रसित थे। लेकिन अब तो मानो हद ही हो गई है, लोग अधिक उपज की लालसा में अंधाधुध रसायनिक खाद खेतो में उड़ेलते जा रहे है।जिसके कई दुष्प्रभाव सामने आये है। जानकार बताते है कि पहले गाय और बैल के गोबर, सूखे पत्ते और फसल के अवशेष से बने जैविक खाद से ही खेती करते थे। तब उपज भी ज्यादा थी और लोग गंभीर बीमारी के शिकार भी कम थे। अब तो इन अवशेषो को खेतो में जलाकर मिट्टी में मौजूद उपयोगी जैविक कार्बन को समाप्त कर उल्टे धुँआ से पर्यावरण को ही नुकसान पहुंचाया जा रहा है। प्रकृति खेती के लिए किसानो को जागरूक बना रहे पूर्वी चंपारण के परसौनी कृषि विज्ञान केन्द्र के मृदा विशेषज्ञ डा. आशीष राय बताते है कि मिट्टी और मानव जाति के सेहत के लिए प्रकृति ने अमृत रूपी कई अवयव दिये है। जिसके प्रयोग से खेती से भरपूर उपज प्राप्त किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि प्रकृति ने कभी भी आसमान से डीएपी या पोटाश की बारिश नहीं की है, फिर भी लाखों वर्ष से धरती हरी भरी है। इसका सबसे बड़ा कारण प्रकृति में मौजूद वह अवयव और जैविक कार्बन ही है, जो वापस मिट्टी को शक्ति प्रदान करती है, लेकिन रसायनिक उर्वरक के प्रयोग से इसका क्षरण हो रहा है और लोग विभिन्न रोगों से कराह रहे है। पशु, पक्षी और जलस्रोत भी प्रदूषित हो रहे है।
उन्होने बताया कि गांवो में गौ पालन को बढाना देना होगा और इनके गोबर के साथ ही खाद्य व फसल अपशिष्ट के साथ अन्य प्राकृतिक अवयवो से तैयार खाद के प्रचलन को भी बढाना होगा। इस उपाय से ही हम इस गंभीर चुनौती का सामना कर सकते है।वही जैविक और प्रकृति तरीके से खेती कर रहे किसान रामचंद्र कुशवाहा बताते है कि हम पांच एकड़ में खेती कर रहे है, जिसमें हम गाय के गोबर से तैयार खाद डालकर बेहतर उत्पादन के साथ ही केमिकल मुक्त शुद्ध अनाज, सब्जी और दूध का सेवन करते है।
उन्होने बताया कि इस कारण ही हम और हमारा पूरा परिवार सभी रोग से मुक्त और पूरी तरह स्वस्थ है। ऐसी सोच देश राज्य और समाज के सब किसान की हो जाय तो निश्चित रूप से पूरा देश जलवायु परिवर्तन के इस दौर में बेहतर उपज के साथ पूरा पर्यावरण और मानव शरीर की रक्षा कर सकता है।