अजय कुमार शर्मा
साहब बीबी और गुलाम गुरुदत्त की ऐसी पहली फिल्म थी जिसकी शूटिंग शुरू होने से पहले ही पूरी पटकथा तैयार कर ली गई थी। सबको अंदाज था कि यह फिल्म गुरुदत्त ही निर्देशित करेंगे लेकिन उन्होंने अपने सहयोगी अबरार अल्वी को इसका निर्देशन सौंपा। यह उनकी पहली फिल्म थी। लेकिन इसके सभी गाने गुरुदत्त ने ही शूट किए थे। बाद में इसका कारण उनकी बहन ललिता लाजमी ने बताया था कि गुरुदत्त उन दिनों अपनी निजी जिंदगी में बहुत तनाव से गुजर रहे थे। अबरार अल्वी से पहले उन्होंने सत्येन बोस या नितिन बोस से भी यह फिल्म निर्देशित करवाने के बारे में सोचा था।
इसके महत्वपूर्ण किरदार छोटी बहू के लिए गुरुदत्त ने मीना कुमारी को ही ध्यान में रखा था। मगर गुरुदत्त ने जब फिल्म के सिलसिले में मीना कुमारी को पैगाम भेजा तो जवाब माफी की सूरत में आया। कमाल अमरोही ने स्क्रिप्ट देखी तो उन्हें लगा शराब पीती हुई छोटी बहू का किरदार मीना के करियर के लिए अच्छा नहीं होगा। यह उनके भीतर के पति का निर्णय था क्योंकि किसी निर्देशक का तो यह निर्णय नहीं हो सकता था। खैर हुआ यह कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़कर यह कह कर वापस कर दी की मीना कुमारी इतनी व्यस्त हैं कि उनके लिए अभी कोई फिल्म साइन करना मुमकिन ही नहीं है।
गुरुदत्त निराश हुए और उन्होंने छोटी बहू के लिए किसी और अदाकारा की तलाश शुरू कर दी। इस सिलसिले में लंदन में रहने वाली छाया आर्य को मुंबई बुलाया गया। छाया आर्य फोटोग्राफर जितेंद्र आर्य की पत्नी थीं। दोनों लंदन में रहते थे, लेकिन गुरुदत्त ने दोनों को मुंबई आने के लिए मना लिया । छाया आर्य ने लंदन में कुछ स्टेज शो और तथा नाटकों में काम किया था।
दोनों मुंबई आए और छाया आर्य के साथ फोटोशूट हुआ। उन्हें टेप पर रिकॉर्ड की हुई पटकथा भी सुनवाई गई और उनकी संवाद अदायगी का टेस्ट भी लिया गया। हालांकि जब फोटोशूट के चित्र आए तो गुरुदत्त और अबरार अल्वी दोनों ही निराश हुए। छाया तराशे हुए नैन-नक्श के साथ एकदम शहरी लग रही थीं। गुरुदत्त छोटी बहू के कठिन किरदार के लिए नर्म ‘ममतापूर्ण’ नैन-नक्श के साथ स्वच्छंद चेहरा चाहते थे। छाया के लिए यह बेहद दिल तोड़ देने वाली बात थी जो इसी फिल्म के लिए लंदन से अपना ठिकाना छोड़कर मुंबई शिफ्ट हुई थीं। हालांकि, फिल्मकार के रूप में गुरुदत्त ने समझौता नहीं किया।
तब तक स्टार बन चुकी वहीदा रहमान भी छोटी बहू का किरदार करना चाहती थीं। उन्होंने बंगाली साड़ी पहनकर टेस्ट भी दिया था और फोटोशूट भी कराया था लेकिन फोटोग्राफ गुरुदत्त को अच्छे नहीं लगे थे उन्हें लगा कि वहीदा बहुत छोटी लग रही हैं जबकि किरदार के लिए एक परिपक्व अभिनेत्री की जरूरत थी। उनके फोटो देखकर गुरुदत्त ने हंसते हुए कहा था, “तुम तो चूहा लग रही हो ।” इसके बाद नरगिस से भी बात की गई मगर वे भी तब तक फिल्मों को अलविदा कहने का मन बना चुकी थी।
फिल्म फ्लोर पर जा चुकी थी गुरुदत्त ने जब तक ऐसा किया कि छोटी बहू के किरदार के अलावा जितने भी सीन थे, उन सब की शूटिंग कर ली। इस सब के बाद एक बार दोबारा मीना कुमारी से संपर्क किया गया। इस बार मीना ने खुद स्क्रिप्ट पड़ी और रात के 2:30 बजे फोन कर फिल्म के लिए हां कर दी। इस वक्त उनकी उम्र 32 साल थी और वह अपने करियर की ऊंचाइयों पर थीं। ऐसे किरदार को स्वीकार करके उन्होंने न सिर्फ खुद को मुश्किल में डाला था बल्कि अपने करियर के लिए भी खतरा मोल लिया था। मीना कुमारी इस वक्त तक शराब के असर से दूर थीं लेकिन इसके बावजूद इस तरह का किरदार अदा किया। इसके लिए आलोचक और प्रशंसकों दोनों से उन्हें खूब वाहवाही मिली।
1962 में यह फिल्म जब रिलीज हुई तो कारोबार के लिहाज से स्वयं गुरुदत्त तथा फिल्मी पण्डितों को भी इस फिल्म से कुछ ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं, लेकिन जब सिनेमाघरों के सामने इस फिल्म को देखने के लिए आने वालों की लम्बी कतारें नजर आने लगीं तो गुरुदत्त, मीना कुमारी और दूसरे लोगों को खुशी के साथ-साथ हैरत भी हुई। 1963 में मीना कुमारी ने एक नया रिकॉर्ड कायम किया। ग्यारहवें फिल्म फेयर अवार्ड के सिलसिले में वह तीन फिल्मों में बेहतरीन अदाकारा के अवार्ड के लिए नामजद हुईं। बेहतरीन अदाकारा के तौर पर उनका मुकाबला किसी और से नहीं, खुद अपने आपसे था। 1962 में रिलीज होने वाली जिन तीन फिल्मों के लिए वे नामजद हुई थीं, उनके नाम थे साहब बीबी और गुलाम, आरती और मैं चुप रहूंगी। साहब बीबी और गुलाम के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। इतना ही नहीं फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए भी फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुए।
चलते-चलते
एक तरीके से मीना कुमारी को यह फिल्म जाते-जाते अनायास ही मिल गई। कुछ अरसा पहले बिमल रॉय अपनी फिल्म ‘देवदास’ के लिए मीना कुमारी को हीरोइन के तौर पर साइन करने के लिए कमाल अमरोही के पास गये थे। कमाल अमरोही ने न जाने क्या सोचकर इस अहम प्रस्ताव को मना कर दिया था। यह किरदार बाद में सुचित्रा सेन ने किया और फिल्म बेहद कामयाब रही। फिल्मी दुनिया में कोई बात लंबे समय तक छुपी नहीं रहती। यह राज भी कुछ समय बाद ही बाहर आ गया। ‘बेनजीर’ की शूटिंग के दौरान एक बार बिमल रॉय ने महज अपनी हैरत दूर करने के लिए मीना कुमारी से पूछा कि उन्होंने इतनी महत्वपूर्ण फिल्म में इतना यादगार किरदार अदा करने से इनकार क्यों किया? इस पर मीना कुमारी ने हैरत जताते हुए कहा कि उन्हें तो मालूम ही नहीं कि उनके लिए इस किस्म की कोई भूमिका आयी थी।
बहरहाल वजह चाहे कुछ भी रही हो, मीना को इस बात से बहुत दुख पहुंचा था कि आखिर क्यों कमाल उन्हें ऐसी बेहतरीन फिल्मों से महरूम कर रहे हैं? यह एक घटना नहीं थी। ऐसी कई फिल्मों से मीना केवल इस कारण हाथ धो बैठी थीं, क्योंकि कमाल साहब उन फिल्मों को ‘न’ कर चुके थे। क्या अजीब बात है कि मीना की पूरी फिल्मों में आधे से अधिक फिल्में उनकी अपनी चुनी हुई नहीं थीं। पहले पिता अली बक्श और अब पति ही उनकी फिल्मों की शिनाख्त कर रहे थे। एक आश्चर्यजनक सत्य यह भी है कि मीना ने जिन सफल फिल्मों में काम किया उनसे ज्यादा सफल वे फिल्म हुईं, जो उन्हें ध्यान में रखकर लिखी गयीं, मगर उन्हें मीना तक पहुंचने से पहले ही उनका भला चाहने वालों ने ही खारिज कर दिया था।
(लेखक, वरिष्ठ कला-साहित्य समीक्षक हैं।)
डिस्क्लेमर- उपरोक्त लेख में प्रकाशित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। ये जरूरी नहीं कि लोकराग न्यूज पोर्टल इससे सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही उत्तरदायी है।