रामायण- -डॉ राम कुमार झा ‘निकुंज’

मैं रामायण हूँ न केवल कथानक इतिहास का,
सत्य पथ अरु न्याय धर्म उपजीव्य हू्ँ अनुराग का,
कुल मान रक्षा भक्ति नेह श्रद्धावनत पित्रादेश का,
लोकहित समरस समन्वय त्यागकर निज गेह का।

विरुद्ध अत्याचार नित शस्त्रधर धनु बाणयुत हूँ प्रखर,
अरिदलन आतंक का हो ध्येय बस लोकहित शिखर,
वर्णभेद निर्लोप हो दें सर्व मान समरस हो निखर,
पात्र हो नारी सदा सम्मान अरु श्रद्धायुता न माने इतर।

त्याग श्रद्धा भक्ति शक्ति नीति न्याय पथी मैं राम हूँ,
मैं पथिक नित सत्य का सह सारथी निज रथ धर्म हूँ,
परहित सतत् रत मर्यादानिरत पितृभक्त अभिराम हूँ,
अन्याय को परित्याग कर शरणागतार्थ भी शरण हूँ।

प्रकृति का आधान सब भूतादिगण परिवार मैं समवेत हूँ,
मृगद्विजवृन्द हो या रिच्छ कपि भिल्ल शबरी अभिप्रेत हूँ,
कृतज्ञ मैं प्रति सरित्सागर निकुंज पादप सादर विनत हूँ,
स्थितिप्रज्ञ योगी कर्मपथ साधुजन आशीषजल अभिषिक्त हूँ।

जामातृ हूँ राजर्षि का मिथिलेश कन्या वैदेही से परिणीत मैं,
पतिव्रता श्रीरूपा सुशीला त्यागधीरबलगुणयुता सियाराम मैं
मानता हूँ जनहित निर्णय कठिन अरण्य सीता त्याग किया मैं,
अग्निपरीक्षाओं में सफल निर्दोष सीता का किया अपराध मैं।

रविकुल तनय मैं दाशरथि कौशलेय अग्रज विनत नेही भरत,
ज्येष्ठ,पर मैं पिता सम सौमित्रेय भक्तिप्रणव लखन का सतत,
सुजनपथ सह सारथी बन अग्रज भरत शत्रुघ्न था केवल निरत,
पतिव्रता सुख त्याग उर्मिल संप्रेषित लखन सेवार्थ सियराम रत।

अहंकार हो चाहे किसी में , बालि परशूराम या लंकेश हो,
करना पड़े यदि शिव धनुष भंग,या छिपकर किया कोई वार हो,
अन्याय व आतंक के शमनार्थ भी क्यों न रिच्छ मर्कट मित्र हो,
अनुनय विनय अमान्य यदि संधान शर साधने उस जलधि को।

सेतु निर्माण भी करना पड़े पाषाण से कपि सह नल नील को,
मतिहीन है जो कुपथी नाशार्थ करना पड़े लंकादहन हनुमान् को,
अहंकार को करने दमन रखना पड़े पग भुवि अंगद युवराज को,
पाप के शमनार्थ है समुचित सदा,दें शरण शरणार्त रिपुभातृ को।

आतंक अत्याचार अरु अधर्म से आक्रान्त हो क्रन्दित धरा,
चाहे इन्द्रजीत सा महाबल या कुंभकरण खरदूषण बला,
अतिकाय हो या नरान्तक अहिरावण भगिनी शूर्पणखा,
विनाश हो समवेत मारीच मायावी दशानन लंकेश का।

रामायण हूँ जीवन की आईना, जन संघर्ष त्याग प्रतिमान,
भक्ति शक्ति अरु स्नेह का, हूँ ममता समता स्वाभिमान,
साक्ष्य बना हूँ न्याय का,अन्याय छल स्वार्थ कपट अवमान,
पितृभक्ति सह भातृप्रेम अरु पतिव्रता नारी का सम्मान।

विमातु भेद अपमानित हूँ संघर्षी त्रेता से यायावर श्रीराम,
तीन युगों से भटक रहा हूँ अपनी नगरी में नाम व पहचान,
जात कहाँ,प्रकोष्ठ कौन सा,स्वजन प्रश्न सुन होता अपमान,
न्यायगेह में न्याय माँगते भटक रहे वर्षों से आहत भगवान् ।

जब मेरा ही न ठौर ठिकाना मैथिली कैसे लाऊँ जा ससुराल,
छीना सबकुछ अपनों ने रिपु से मिलकर, हाल बुरा बद़हाल,
सोचा न कभी मैं सत्य धर्मपथी लोकार्थ किया सिय त्याग,
वही आज हैं विरुद्ध सिंहासनार्थ,छद्मधर्मनिरपेक्ष सरताज़।

विद्वान् बड़ा बलवान् विश्व जेता नीतिविज्ञ रावण था लंकेश,
अभिमानी बस किया सिय हरण रखा सुरक्षित निज देश,
त्रिजटा संग देखरेख में अशोकवाटिका दे विभीषण परिवेश,
था त्रेता महाविप्र वह न सिय स्पर्श किया दिया महा संदेश।

पर कलियुग कलिकाल बना अब,घर घर फ़ैला रावण आतंक,
स्वार्थपूर्ण है रामराज्य बस वोटबैंक से पोषित बस षडयंत्र,
थका हुआ हूँ युग युग से लड़ते निज वज़ूद जमीं और सम्मान,
रामायण हूँ क्षत विक्षत जीवन ख़ुद दोषी विधिलेखी इन्सान।

क्या सुनाऊँ आपबीति मैं था लोकमंगल अधिनायकअभिराम,
जाति पाँति न भेद किया,दाशराज सह प्रीति किया निष्काम ,
जनकमीत जटायु महाबल किया पितृसम गंगा में पिण्डदान,
असुर विभीषण मीत बनाया दे सुग्रीव कपिराज सखा सम्मान।

मुक्ति दिया भक्तन शबरी को उसका खाया स्नेही जूठा बेर,
कहर ढा रही ऋषिमुनियों ,मानव पर किया तारका ढेर,
पाषाणी शापित मिथिला में कर शापमुक्त अहिल्या देह,
शिवधनुष भंग कर भरी सभा सिय परिणय आनंदित विदेह।

स्वार्थरहित हो निज जिंदगी ,परित्याग किया .पर नाम,
भेदभाव दुर्नीति निरत हो मति वसुधैव कुटुम्ब अभिराम,
गर्भवती दारा को त्यागा निकुंज अकेले हेतु जनकल्याण,
हुए लवारिस तनय लवकुश महावीर शत्रुंजय अनज़ान।

रामायण मैं आज विवश हूँ लोकतंत्र में अज्ञात बना बस नाम,
स्वार्थ परत छल राग कपट घृणा द्वेष अब भारत है बदनाम,
मार काट आतंक चतुर्दिक् छाया तम अरु दीनों का कोहराम,
न्याय कहाँ इस लोकतंत्र में कैसे होगा गौरव अतीत सम्मान।

-डॉ राम कुमार झा ‘निकुंज’
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
बेंगलूरु, कर्णाटक
मोबाइल नम्बर- 7838718648
E-mail- [email protected]