इश्क़ करना मगर निभाना भी
ज़ख्म खलता है यूँ पुराना भी
दर्द देता है हर तरह मुझको
चाँदनी रात का ये आना भी
एक रिश्ता सा यार लगता है
चाँद का रोज मुस्कुराना भी
झूठ लगता रहा हमेशा क्यूँ
आपका हर सही बहाना भी
चाँद जैसा खिला रहा पुरनम
रूप रातों भर आशिक़ाना भी
दूरियाँ न हुई अभी तक कम
फ़ासले पर रहा ज़माना भी
सिर्फ़ यादें बची रहीं रकमिश
और तन्हा का आना जाना भी
-रकमिश सुल्तानपुरी