मुनिया रहती है अपने पति सरजू के साथ
शहर की एक छोटी सी बस्ती में
बहुत ग़रीब हैं दोनों
पर अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कमाते हैं
सरजू मजदूरी करता है एक खिलौने की कम्पनी में
मुनिया दाई का काम करती है एक मेमसाहब के पास
उठ जाती है वह सुबह 4 बजे
निपटाती है पहले अपने घर का सारा काम
फिर मेमसाहब के यहाँ लगाती है झाड़ू-पोछे
बनाती है खाना, माँजती है बर्तन, धोती है कपड़े
फिर थककर शाम को अपने घर पहुँचते हैं
मुनिया और सरजू
महीने के आख़िरी दिन जाते समय काम पर
होती है दोनों के आँखों में चमक
आज उनके काम का मेहनताना जो मिलता है।
मुनिया अपने कमाए पैसों से कोई समझौता नहीं करती
वह रखती है अपने पैसे बिल्कुल अलग
सरजू के पैसों से
शहर के दूसरे छोर पर रहती है शीला देवी
पति इनके काम करते हैं एक बड़ी कंपनी में
पैसे अच्छे कमाते हैं,बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाते हैं
शीला देवी की शादी दो वजहों से हुई थी
एक तो उनकी खूबसूरती
दूसरी, खाना वो बहुत अच्छा बनाती थीं
फ़िर भी दहेज में उनके घरवालों को एक कार, एक फ्रिज़,
एक एसी और कुछ गहने देने पड़े थे
देवी जी भी उठती थी सुबह 4 बजे
झाड़ू लगाती, बर्तन माँजती, कपड़े धोती
नाश्ता बनाती, खाना बनाती
बच्चे और पति को तैयार करवाती,
उनको ख़िलापिला कर बाहर भेजती
सुबह दोपहर शाम यही चक्र चलता रहता
दिन हो महीना हो या साल
शीला देवी के चेहरे पर कभी मुनिया जैसी चमक नहीं दिखती
पर किट्टी पार्टियों में उसका रुतबा बहुत था
क्योंकि उस पार्टी में सारी औरतें उस जैसी ही थी
जिन्हें अपने कुर्ते के एक बटन के लिए भी
अपने पतियों पर निर्भर रहता पड़ता था।
वे सारी औरतें समाज के लिए पढ़ी लिखी
एक आदर्श पत्नी और माँ थी
अपने ही घर की रसोई उनका आफिस था
पड़ोस की सखियाँ कलीग थीं
‘आदर्श’ कहलाना उनकी कमाई थी
शायद यही उनका सबसे बड़ा वेतन था
पर हमेशा उन्हें एक बात परेशान करती रहती थी
मुनिया जैसी चमक उनकी आँखों में क्यों नहीं है?
मुनिया जैसी खनक उनकी बातों में क्यों नहीं है?
-सूरज रंजन ‘तारांश’