घनन, घनन…। थाने के सन्तरी ने घण्टा बजाया तो रतना चौंक उठा। सुबह से तिपहरिया हो आई थी और कोतवाल साब का पता न था। एक इच्छा हुई कि अब ऐसी-तैसी कराने दो, गाँव चलो। पर उसके जुझारू मन ने कहा कि गाँव में भी तो बैठनों ही है। यहाँ बैठ लेते हैं।
एक निगाह उसने थाने के कारिंदों पर फेरी जो काम न होने के कारण ऊँघ रहे थे और फिर वह अपने ही भीतर के सोचों में डूब गया।
अपनी देख रेख और रोटी पानी में बेटों-बहुओं की लापरवाही से तंग हो बुढ़ापे में उसने फिर से मूठा औऱ हत्था उठाये तथा गाँव पथरपुर जाकर फिर से अपना काम शुरू किया था। एक दिन गाँव में तहसीलदार साब आए तो पटेल के दरवाजे पै सिगरो गाँव जुटो। तब वे कह गये कि अब हल्की जात बिरादरी बारों खों सरकार पैसा बाँटेगी, जिससे वे धंधा रोजगार करें, कुम्हारन्ह को बरतन बनावे, ईंट बनावे पैसा मिलेगो।’’
उस साँझ हुलफुलाहट में उससे खाना नहीं खाया गया था, जैसे-तैसे रात कटी। दूसरे दिन वह तहसीलदार के इजलास में जा पहुँचा और दरखास लगा दी थी। बुलावे पै भीतर जा के तहसीलदार से विनय करी थी- ‘‘सिरकार, मैं कुम्हार हूँ। मौको ईंट बनावे जमीन और करज दिलाओ।’
तहसीलदार साब ने उसे आश्वस्ति देते हुए अपनी आँखें झपकाई थीं और बोले थे- ‘‘गाँव में ऐसी सरकारी जमीन देख लो जहाँ ईंट बना सको। अपने गाँव के पटवारी को बता देना।’’
रतना तब तहसीलदार साब के पैर छूकर लैाट आया था और फिर पटैल, पटवारी और गिरदावर का ऐसा चक्कर लगा कि तीन सौ रूपया करज हो गया, तब नदिया के बगल की जमीन पर ईंट बनाने का पट्टा और इजाजत मिली थी। उसने वहीँ मढ़ैया डालकर काम शुरू कर दिया था। हाँ काम काज के वास्ते गाँव के विशाखा साहू से सात सौ रुपया करज लेना पड़ा था।
उस दिन अचानक सरपंच पहलवान सिंह नजदीक आके तैस में बोला था- ‘‘देख रे रतना, नदिया के जापार की जमीन हमारी है और तू समझे है कि दूसरे की जमीन पै दखलंदाजी बहुत बुरी होवे।’’
“अरे! क्या कह रहे? जा तो सरकारी जमीन है भैया, तुम्हारी कहाँ से हो गई?’’ वह अचरज में बोला था।
‘‘होगी सरकारी रे रतना, पर हमारे खाते में बीते पाँच बरस से बिला-इजाजत कब्जा में लिख रही है। सो अब कानून के मुताबिक जा साल पटवारी की बही में हमारेई नाम इन्द्राज हो जावेगी।’’
रतना मुँह बिचकाकर अपने काम में लग गया था। लेकिन उसी दिन से उत्पात शुरू हो गये थे। कभी उसकी कच्ची ईंटे तुड़वा दी जातीं , कभी सामान गायब हो जाता या पकती ईटों के भट्टे में पानी डाल दिया जाता। एक दिन तो गजब हो गया, दो आदमी मुँह पर तौलिया बाँधे रात को आए और उस पर दनादन लाठियाँ बरसाने लगे। वह अचकचाकर चिल्ला उठा और गाँव की तरफ भागा। किस्मत थी कि बच गया। दरअसल दोनों लठैत गीली मिट्टी में फसँकर गिर पड़े थे और मौका पाकर वह गाँव पहुँच गया था।
जुझारू रतना ने हार न मानी थी। अगले दिन जिला मुकाम पर जाकर वह पुलिस कप्तान के बंगले पर जा बैठा था, दोपहर खाने पर आए कप्तान ने उसे पास बुलाया तो रतना ने तहसीलदार के कागज दिखाके अपनी विपदा कह सुनाई। कप्तान बोले पुलिस तुम्हारे साथ है, जाओ काम करो।
उसी आस में वह आज थाने चला आया था। थाने की लाइट जल गई थी और दो-चार सिपाही आकर बैठ गए थे। उसने एक सिपाही से पूछा-ब‘‘हैड साब! थानेदार साब कब आएँगे?’’
‘‘अरे ससुरे, तू यहाँ एसी-तैसी क्यों करा रहा है, जा तू उनके बगंला पर चला जा। अब रात को वे काहे को थाने लौटेंगे। सिपाही बोला तो वह रुआँसा हो आया था। एक निश्वास खींचकर अपनी पोटली उठाकर जाने को खड़ा ही हुआ था कि अचानक थाने के दरवाजे से कोतवाल साब अन्दर आए। उसकी जान-में-जान आई। उसे लगा जैसे खजाना मिल गया हो। पर उसकी प्रसन्नता अगले क्षण ही समाप्त भी हो गई, क्यों कि कोतवाल साब के पीछे-पीछे गधे जैसा रैंकता पहलवान सिंह भी था।इसी के खिलाफ तो वह रपट लिखाने आया था। रतना सहम गया।
उसे वहां देख पहलवान बोला- ‘‘कोतवाल साब, ये ई है वेाह उतपाती आदमी।’’
कोतवाल साब ने पहलवान की बात पर कोई ध्यान नही दिया और वे अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गए। पहलवान ने मूँछें मरोड़ी, फिर एक सिपाही को बुला कर कहा-भजन सिंह हैड साब, आज इसे सबक सिखा दो। इसका हवाई जहाज बनइयो।
रतना घबरा के कभी भीमकाय भजनसिंह को तो कभी हवालात को देखता था जहाँ छत में लगे चार कुन्दे उसका इन्तजार कर रहे थे, हवार्इ जहाज बन कर टँगने के लिए।
इसी बीच एक सरकारी गाड़ी आकर थाने में रुकी जिस पर पुलिस कप्तान का बोर्ड लिखा था।
…और कुछ देर बाद रतना सम्मान के साथ भीतर बैठा था और पहलवान सिंह पुलिस के डर से हवाईजहाज बना गाँव के बीहड़ की तरफ भागा जा रहा था।
-राज नारायण बोहरे