वह स्त्री- जसवीर त्यागी

वह स्त्री बेख़ौफ़ एक छोर से
दूसरे छोर तक
रोज चलती है

घर-गृहस्थी की
बंधी दिनचर्या की रस्सी पर

वह स्नेह का शहतीर है
जिस पर टिकी हैं
संबंधों की कड़ियाँ

वह जब थक जाती है
और खोलना चाहती है रस्सियाँ

कुछ ही देर बाद
रस्सी खुद-ब-खुद उसके पैरों की ओर सरकती हुई जकड़ लेती है उन्हें

वह कुछ समय बचाकर
रखना चाहती है
अपने लिए भी
महसूस करना चाहती है प्रेम और सुकून भरे पल

जब भी वह अपने एकांत संग होती है
गृहस्थी का कोई काम
हाथ पकड़कर अलग कर देता है उसे

बच्चों की फरमाइशें
खींचने लगती हैं उसे
अपनी ओर

भूलकर अपने हाथ-पैरों का दर्द
भरती रहती है सबके
ख्वाहिशों के खाली पात्र

सच्चे समर्पण और त्याग की भावना से प्रेरित होकर निभाती है
पत्नी, माँ, नारी और
सदगृहस्थ होने का धर्म

वह अपने प्रेम की रोशनी से जगमग करती है
घर का एक-एक
अंधेर भरा कोना

प्रेम पर बड़े-बड़े प्रवचन देने वाले पंडित भी
पकड़ नहीं सकते उसका प्रेम

प्रेम के महत्व पर
भारी भरकम ग्रन्थ
लिखने वाले विराट विद्वान भी
जान नहीं पाते उसकी प्रेम-पीर

ऐसी स्त्रियाँ ही
बचाकर रखती हैं
पृथ्वी पर प्रेम

यह दुनिया जब तक रहेगी
तब तक एक स्त्री के प्रेम की ऋणी रहेगी

-जसवीर त्यागी