दादी कहती थी मंद मंद बहती हवाएं सुखद होती हैं
हमारी जिंदगी में बहुत कुछ बोती हैं
सिखाती हैं हमें प्रकृति से प्यार करना, उसे दुलराना
कल्पनाओं में आना जाना
पर कैसे करूं इनपर भरोसा
यहां तो हवाएं ही बहला-फुसलाकर छीन लेती हैं सब-कुछ
जिसके बाद रह जाता है
सांत्वना, खेद और फिर होता है जनांदोलन, कैंडिल मार्च,
जगाने आदमीयत को,
उसकी इंसानियत को
पर वो नहीं जागता, सोता रहता है एक ऐसे दिल में
जो वकालत करता है उन क्रूर हवाओं की,
अदालत में
जिसे देखकर मानवता भी आ जाती है सांसत में
तुम्हीं बताओ, क्या नहीं रोई होंगी वे आंखें
नहीं टपकी होगी मासूमियत छोटे सुंदर चेहरे से
यह कै सी वहशत है जिसके वश में,
इन्सानी जज्बात हो जाते हैं बहरे से
छोटे-छोटे हाथों ने भी तो किया होगा रोकने का प्रयास
फिर क्यों नहीं हुआ उस दरिंदे को अपनी करनी का अहसास
क्यों नहीं लरजी पतन की खाईयों में गिरती जिंदगी
कैसे कर लेते हैं लोग इस तरह मौत की बंदगी
कुछ तो हो हमारे जिंदा रहने के प्रमाण
कैसे कोई जिंदगी कराती है किसी मासूमियत का महाप्रयाण
गरीबी और वंचना तो नहीं कर सकती ऐसा सृजन
कहां से आता है इन दरिंदों के पास ऐसा मन
आखिर किसकी चकाचौंंध में हो जाता है इस तरह दिखना बन्द
ऐसा क्या होता है कि मानस में नहीं रह जाता कोई द्वंद
क्यों नहीं याद आता कि बेटियां भी मातृशक्ति हैं
वही देवी हैं जिनके प्रति हमारी अगाध भक्ति है
छोड़ दो ये ढोंग अगर नहीं कर सकते मातृशक्ति का सम्मान
नहीं रख सकते जमाने की मासूमियत का ध्यान
बन्द करदो यह कहना कि हम इन्सान हैं
उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति जो होकर भी अंतर्ध्यान है
हम रो सकते हैं, हंस सकते हैं, सोच सकते हैं
अपनी अंतरात्मा से पूछें
इस बियाबान में क्या हम अपने आपको खोज सकते हैं….
-असर आशुतोष