अफसोस रहेगा हर पल मुझको
हम जीवन में कुछ पा न सके
कर्मों के फल छोटे रह गए
हम मंज़िल को मुँह दिखा न सके
संताप पराजित हुए जाने का
जीवन भर मुझको ढोना है
गुण एक से एक रहे प्रखर
फिर भी जीवन भर रोना है
मैं एक स्वाभिमानी औरत हूँ
यह इस जग को समझाना था
केंचुआ नहीं जो सिकुड़कर रहूँ
मुझको तो तन कर जीना था
जो स्वप्न थे इन आँखों में
वो टूट कर चूर-चूर हुए
अभी तो चलना शुरू किया ही था
फिर क्यूँ मंजिल से दूर हुए
आभास हुआ जब यह मुझको
यह जीवन सूकर्मों का आकाँक्षी है
पर मैं तो विवश हो रह गई हूँ
हे ईश्वर तू तो इसका साक्षी है
कोई राह दिखा तू ही मुझको
दुर्गम ही सही पर चलते जाउँगी
फिर अपने पैरों के घावों को
तूझ तक न कभी रोने आउँगी
जो ज़ख़्म पुराने हैं इस मन के
उसको तो अब भरने दो
कोई तो उम्मीद का दीपक
इस मन मंदिर में जलने दो
– रुचि शाही