अकेला: जसवीर त्यागी

मेरी पसंद का एक घर है
जिसमें मेरा मित्र रहता है

जब कभी मैं जाता उस तरफ
दोस्त के घर का द्वार खुला मिलता था
मेरे पैर स्वयं ही
उस तरफ उठते चले जाते

सामने से मुझे आता देख 
दोस्त के चेहरे पर आ जाती रौनक
वह बोलता-अरे यार 
बड़ी लंबी उम्र है तुम्हारी
मैं याद ही कर रहा था तुम्हें

कभी कहता-
तुम्हें कैसे पता चलता है? 
मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था
कुछ-कुछ ऐसे ही वाक्यों से
वह स्वागत करता मेरा हर बार

बहुत दिनों से उसका द्वार बंद है
मैं अनेक बार वहाँ गया
बहुत बार खटखटाया दरवाजा
लेकिन! कोई आहट या आवाज़
बाहर निकलकर नहीं आयी देखने

मैं पेड़ के तने से अलग हुआ कोई हिस्सा
पड़ा रहता अलग-थलग
सोच की खाई में फंसा रहता बेबस और बेहाल

अभी भी देर-सबेर
हो लेता हूँ उस तरफ
अकेला बैठा देखता रहता हूँ उसकी राह
कि किसी दिन वह कहेगा-

अरे यार! कितनी देर कर दी आने में
मैं कब से तुम्हारा रास्ता देख रहा था

जसवीर त्यागी