सखी, श्याम हमसे रुठ गये
दिन, दुपहरिया, साँझ मनाऊँ
सगरी रतिया जाग बिताऊँ
तुम रुठे हो मैं स्वयं से हारी
अपने हृदय से हुई पराई
मन की स्वप्निल आशाएं
हो गयी खोखली
जैसे लगता पसरा हुआ है,
उर स्थल में सन्नाटा
रह-रह कर टीस उभर रही
जैसे जलधि में उठे ज्वार भाटा
बसंत ऋतु में पतझरी मौसम
चाँदनी की आँखों में अश्रु
धरा बेचारी शून्य हो गयी,
किसलिए तुम रुठे हो
वेगहीन हुई मति हमारी
बेसुरी हो गयी राग सुरीली
नैनों की सरिता
अविरल हो रही प्रवाहित
आग बनी अब तेरी चुप्पी
फूलों की सेज पर हूक उठ रही
नेनौं में धुंध हैं छायी,
बदन मेरा कुम्हलाया
कण-कण में बसते हो प्रियतम
तुम पर निर्भर सकल सृष्टि का जीवन
विपदा ऐसी आयी विश्व पर,
शुष्क पड़ा सारा जन जीवन
ध्वनिहीन हुए हैं कंठ सभी के
ताप में झुलस रहा जनमानस
वायु बिन विश्व बिलख रहा,
करो ना कोई उपाय गोविंदा
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश