अपनी ही तलाश में हूं मैं
मिल जाऊं कहीं तो कह देना
निकला था इक राह खोजने
खो गया खुद ही इस भीड़ में
जितना भी भागा इधर उधर
उतना ही दूर हुआ अपने से मैं।
निकला था कहां जाने को
क्या क्या देखा था रास्ते में
किस किस से मिला अब तक
भूल गया अब तो यह भी मैं।
निकला था तलाश में किसी की
लेकिन खो बैठा हूं खुद को ही
निकला तो था ज्ञानी बनने को
अब समझा कितना अज्ञानी हूं मैं।
खुद को ही जब तलाश
नहीं पाया हूं मैं कब से
और खुद ही की जब दरकार मुझे
मदद करूंगा किसी की कैसे मैं।
समझा था बड़ा हो गया अब
पर हूं बच्चे सा नासमझ अभी
पोथी पोथी रट कर भी तलाश
ना पाया खुद को भी अभी मैं।
ना नक्शे में ही पाया खुद को
ना कंपास ही दिशा बता पाया
कहां से भूला कहां से हूं भटका
किस दारुण वन में हूं अटका मैं।
खुद अपनी ही तलाश में है ‘राव’
मिल जाऊं कहीं तो कह देना।
राव शिवराज पाल सिंह
इनायती, जयपुर