रच रहा इतिहास काला, नर नहीं करता अमल।
ले रही विस्तार नदिया, रक्त की है आजकल।।
अग्नि ईर्ष्या की धधकती, क्रोध का ज्वालामुखी।
बन महापाषाण मानव, कर रहा सबको दुखी।
शूल -शैय्या पर मनुजता, हो रहे दुश्वार पल।।
जिंदगी का क्या भरोसा, लुट चुका है आसरा।
पार करती पीर सीमा, धैर्य बेसुध अधमरा।
छल कपट के क्रूर प्रस्तर, अब रहे जीवन निगल।।
बन चुकी रणभूमि धरती, अस्त्र लेकर सब खड़े।
मौत का तांडव भयंकर, कोटि शव छितरे पड़े।
खंडहर घर हैं शहर सब, दिग्दिगन्तर अति विकल।।
नेह की सूखी सरित है, साँच की चाबी बिकी।
ढेर बम बारूद का है, सृष्टि जिस पर जा टिकी।
यह प्रलय कैसे रुकेगा, लुप्त है हर एक हल।।
स्नेहलता नीर