रूची शाही
मेरी रजा अब न पूछो सनम
तुम्हारी मर्ज़ी है अब जो तुम करो
आंखों में आंसूओं को पाले हुए
एक उम्र से थे तुमको सम्भाले हुए
यही अंजाम है तो यही अब सही
प्रेम के सारे अक्षर ही काले हुए
खतों को रखो या फाड़ कर फेंक दो
तुम्हारी मर्ज़ी है अब जो तुम करो
हम गलत थे तो तुम ही रहते सही
बातों ही बातों में बात बिगड़ती रही
ये इलज़ाम मुझको तुम देकर गए
हम न समझें है और न समझेंगे कभी
मेरी चाहत से आज़ाद हो आज तुम
तुम्हारी मर्ज़ी है अब जो तुम करो