रूची शाही
जिंदगी की उदासियाँ
तब और उदास करती है
जब तुम्हारी यादें दस्तक दे जाती है
सोचने लगती हूँ मैं
कितना दुख है रोने को
फिर भी तुम्हारा ग़म इतना तन्हा क्यों है
इतनी आहें, इतनी सिसकियाँ हैं
फिर भी कुछ आंसू रात के अंधेरे में
चुपके से आंखों के कोर से बहते क्यों हैं
नहीं नहीं अब कोई जवाब नहीं चाहती
तुम्हारी खमोशी ने न जाने
कितनी बार दुत्कारा है मुझे
कितनी बार समझौता किया है मैंने
प्रेम औऱ स्वाभिमान के बीच
और बचाये रखा तुम्हारा प्रेम
मालूम ही नहीं चला
कब ये बीच का रिश्ता
इतना कमजोर कर गया मुझे
कि आज मैं खुद से भी नाम लड़ पा रही
बेबसी जैसे कहीं ठहर गयी है मुझमें
और रास्ता मालूम होते हुए भी
मुझे चलने से डर लग रहा है
पर समझ नहीं आया मुझे मेरा कुसूर
इतनी तकलीफ क्यों मिली मुझे
फिर लगा कुछ सजा,
जिंदगी यूँ ही मुकर्रर कर देती है
शायद जीने के एवज में