मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे
सुध-बुध खोई पगलाई रे
सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे
‘पी’ आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे
उड़-उड़कर हुये पंख शिथिल
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे
जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे
-श्वेता सिन्हा