लगी टोटियाँ राह पर, खोल चला इन्सान
पनघट पर प्यासा खड़ा, बचे किस तरह जान
नीर सजगता पे मनुज, बकहाँ सो गई सोच
पोखर नदिया कूप को, देते रहे खरोच
सूखी नदियाँ माँगती, मानव से इन्साफ
कूड़े कचड़े से हमें, करते रहना माफ
खोले बोतल नीर की, थोडा भरे गिलास
जिनको जितना चाहिए, बुझा कंठ की प्यास
हम गमलो में कर रहे, प्राकृति का श्रृंगार
शुद्ध हवा की चाह का, है कैसा आधार
निज स्वार्थ के वास्ते, लेते उनका प्राण
वृक्षों से करते नहीं, भ्राता जैसा प्यार
-राजेंद्र प्रसाद