नंदिता तनुजा
अरे काहे इतना टिपिर-टिपिर बोलती है वो…?
का है वो जो खुद में इतना डोलती…?
शब्दों का इतना जाल बिछाए बेतुकी बाते करत है मुई …?
बड़बड़-बड़बड़ खुद के मियाँ मिठ्ठू बन जाने से का मिल जावत है.ओकरा के?…
कि बस वाह-वाही खुदही बटोर लेवइती है ?
इतना कुछ एक साथ बोले के बाद अम्मा चिढ़ में भरपूर लेकिन चुप्पा गयी।
तभी रानू बोल पड़ी- जान दोऊ अम्मा, काहे अपना खून जलावती हो, अरे नई-नई पार्टी में आयी है, अब इत्ता तो
बन बे करेगी अम्मा।
अम्मा-मुई! हमका समझावत है, हमरी बिल्ली, हमहि से म्याऊँ करत है।
रानू- नेताईन बनी फिर रही ओ अपने मे नाही, तभी आपन बात के ऊपर आगे कोई दिखत नाही तनको सुनत नाही है। कुछ भी हो, सबका बुद्धू और अपना के झांसी के रानी, कुछ भी बड़बड़ बोलत है, खुद में मन बढ़ हो गइल है, सब समय पर पता चलिये।
अम्मा- सहिए कहत हो बिट्टी।
रानू- हम्म, मतलब काहे तुम इतना बिलबिलाए पड़ी हो,
ओकरा के करे दो, जो करे का है, नेताईन है, ई तो समझो,
आखिर नेताईन बनना आसान कहाँ..?
सब पर हुकुम और लूलू चुप्पा आसान कहाँ है..?
छोड़ जाए दे ना फालतू नेतानगरी, फालतू बकवास
और ढाके के तीन पात….है औकात वही मुई खाली टाइमपास करत है, फिर चुनाव में आगे जाए खातिर दूसरे को गिराए दो, अपना उठाइल लो।
अम्मा- हाँ रे बिट्टी सही कहत हो, करनी-धरनी कुछ नाही, गिलास तोड़े बारह आना, मगजमारी करके दिमाग खा लेवत है।
बहुत ज्यादा काबिल खाली नेतानगरी में ही होवत है, औऱ समय इनका जवाब होवत हैपर
रानू ने आखिरकार अम्मा के गुस्से पर काबू कर ही लिया।