आज फिर कितना अकेला
रोज अब किस धूप में तपता
शाम को दीपक जलाता
प्रेम का मंदिर किस एकांत में
सबको बुलाता
सुबह की प्रार्थना के फूल
रात्रि में किस पावन नदी का कूल
यह मुस्कान निरंतर
कितना दूर गुजरता यह पथ
सपनों का संसार
माटी, पानी, हवा धूप से
किसी सुबह जब तुमने
इतना प्यार जताया
यह चेहरा अब फूलों के
उसी सुवास से
महक उठे वन बाग बगीचे
नीला यह आकाश
किसकी बाँहों में सभी दिशाएं
आज रेत पर आकर सागर ने
तुमको चूमा
-राजीव कुमार झा