शब्द आते जाते रहे हमेशा
तुम्हारे पास से होकर मुझ तक
तुम्हारा होना ही काफी था
मेरे होने के लिए
रेल की पटरियों पर रख दिए गए जरा से शब्द
डिब्बो के साथ साथ बढ़ते रहे उनके अर्थ
इंजन के लाल रंग में लिपटा झक सफ़ेद प्रेम
रेल के पहले पहिये के साथ पहुंचा तुम्हारे शहर
बहुत कुछ कहना यूँ ही हो गया
जैसे यूँ ही पड़ जाती है दूब पर ओस
बहुत कुछ समझना यूँ ही समझ लिया गया वैसे ही
जैसे बादल समझ लेते हैं पानी
बातें कभी मोहताज नहीं रहीं आमने सामने की
वो तो वैसे ही निकलती रहीं
जैसे निकलता रहा ध्रुव तारा
देखना खुद को देखना या तुम्हे
तुम्हे देखना जैसे देखना दर्पण
अलगाव नहीं था पूरी पृथ्वी पर कहीं शेष
आकाश तक फैला रहा एकत्व
प्रेम था या की कुछ और
बस तुम्हारा होना ही होना था सम्पूर्ण ब्रह्मांड का…
-शुचिता श्रीवास्तव
नाम- शुचिता श्रीवास्तव
शिक्षा- एमए, दर्शनशास्त्र, गोरखपुर यूनिवर्सिटी
व्यवसाय- फैशन डिजाइनर [खादी के डिजाइनर गारमेंट का स्वतंत्र व्यवसाय ]
प्रकाशित रचनाये- सरिता, मुक्ता, गृहशोभा, मेरी संगिनी, बिंदिया आदि पत्रिकाओ में लगभग 50 से अधिक कहानियों का प्रकाशन, हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि में लेख, कविताएं प्रकाशित, पूर्व में जनसंदेश में नियमित फैशन पर स्तम्भ लेखन।
रुचि- पेंटिंग, इंटीरियर डिजाईनिग, बागवानी, पर्यटन, कुकिंग, संगीत, समाज सेवा आदि।