चाहत तो थी
बस एक बेटा जनने की
पर यह नासपीटा भगवान सुने तब ना
सुनता तो क्यों एक पर एक दो बेटियां होती कहते-कहते रमा की आँखों में भर आए आंसू एक हूक सी उठी
पहली के जन्म लेते ही
सासू ने फेर दिये बाजे
लौटा दिए सोहर गाने वालियों को
हाथ चमकाते हुए कहा
इस बार पान बीड़ी की उम्मीद ना रखियो कलमुंही ने बेटी जनी है
दूर खड़े बिटिया के बापू
दुख और विस्मय में
गोता लगाते रहे
कारावास बने सौर घर में
इंतजार ही करती रही रमा
फिर दूसरा गर्भ
रोज पूजा रोज मन्नत
पर फिर वही ढाक के तीन पात
हाहाकार मच गया
कर्म को कोसने लगी सासू माँ
क्या हुआ दादी?
बड़े प्यार से पूछा रिमझिम ने
चल भाग यहां से
करम में बहन ही लिखा के आई है
सौर में पड़ी
तन-मन की पीड़ा से छटपटाती रमा
खुद ही बच्ची की रुक रही
सांसों को अपनी सांसों से संभाला
जैसे कह रही हो मैं हूँ न तेरे साथ
तीसरी बार फिर से टंगी है सूली पर सांसें
पड़ोस का कलुआ आसपास घूमते रहता
कहती रात दिन इसे ही देखते रहना
दूध से उज्जवल बच्चियां
दूर रहने लगी
उनका रोना सुनकर
कलेजा फट जाता
गर्भ और बेटा जनने के
दायित्व के बोझ के तले
दिन कटने लगे डर के साए में
ऐसे में बाउंस कर जाता
बीेते भर के कलुआ का कटाक्ष
क्या चाची इस बार बिटवा होइहै कि नाहि?
कब तक सहती
हाथ पकड़ा और ढकेल आई देहरी के पार
नहीं चाहिए तेरे जैसा बेटा
जो अभी से अपने पुरुषत्व पर करें गुमान
उमड़ के मिली बेटियों से
आह! प्यार का यह संगम
कितना सुहाना है
-संजू वर्मा